सेवा-पूजा

सेवा-पूजा

श्री गुम्मट जी में महामति श्री प्राणनाथ साक्षात् विराजमान हैं । अतः उनकी उसी प्रकार सेवा टहल की जाती है जैसी सदेह स्वरूप की होती है । इसी प्रकार सद्गुरु मंदिर में श्री देवचंद्र जी की ब्रह्म रूप में उपस्थिति एवं बाईजूराज मंदिर में श्यामा जी की साक्षात् उपस्थिति मान्य है । अतः पन्ना धाम के सभी मंदिरों में सेवा का भाव सर्वोपरि है ।

प्रातः पाँच बजे मंदिर (श्री गुम्मट जी) के पट खुलते हैं और पुजारी पूजा के लिए मंदिर की देहरी चूमकर भीतर प्रवेश करते हैं। मंदिर के सेवा गर्भगृह में हमारे प्रभु, बालाजी, स्वामी शयन कर रहे हैं । पुजारी अपनी उपस्थिति को जताने के लिए थोड़ा खुटका करते हैं, जैसे हल्के से ताली बजाना था और कोई हल्की सी थाप, ताकि प्रभु को सेवक के आ जाने का एहसास हो । यहीं दाहिनी तरफ पीछे सिंहासन पर श्री छत्रसाल जी की पधरावनी है । मान्यता है कि वे सदा अपने स्वामी की सेवा में उपस्थित हैं पुजारी उन्हें दण्डवत प्रणाम कर प्रभु सेवा के लिए आज्ञा प्राप्त करते हैं । तत्पश्चात वे सेवा कार्य प्रारंभ करते हैं । मंदिर बुहारते हुए पुजारी प्रभाती गायन में प्रार्थना करते हैं -

जागिए श्री प्राणनाथ, प्रात भयो प्यारे.....
(प्रभाती के कई पद हैं, पुजारी सुविधानुसार इन्हें बदल बदल कर गाते हैं।)

अब तक बाहर परिक्रमा में कुछ भक्त सेविकाएँ आ जाती हैं । उनके द्वारा निवेदित है- 'आवोजी वाला म्हारे घेर ।' (हे वाला जी ! हे स्वामी मेरे घर पधारो) पुजारी भी इस अर्चना में साथ देते हैं । इसके बाद "रैन की उनींदी श्यामा पिउ पासे आइयां..." गाते हुए दंतधावनी कराई जाती है । इसी समय पुजारी जी वाला जी से पूछते हैं, आज आप किस प्रकार का श्रृंगार करेंगे; आज किस रंग की पोशाक पहनेंगे । मन ही मन में प्रति उत्तर पाकर पुजारी वालाजी का वैसा ही शृंगार करते हैं ।

अब सुबह का श्रृंगार हो गया। वाला जी तैयार हो गए । मंदिर में सुबह से ही सुन्दरसाथ (भक्तगण ) आ गए हैं । पुजारी द्वारा पर्दा खोला गया और सबने अपने प्रभु के प्रथम दर्शन के साथ ही जयकारा लगाया- 'श्री प्राणनाथ प्यारे की जय' पुजारी दायें हाथ में चंवर लेकर प्रभु की सेवा करते हैं । इसी प्रकार सुंदरसाथ (भक्तगण) जो धोती कुर्त्ता या कुर्त्ता पाजामा में आए हैं, दायें हाथ से चँवर डुलाते हुए वालाजी से प्रार्थना करते हैं । बंगला जी में भी इसी क्रम में उठापन हो गया, दंतधावनी हो गई । फिर श्रृंगार होने के बाद वहाँ से गुम्मट जी में आरती की थाली घी की बातियों के साथ लाई जाती है। यहाँ पुजारी जी आरती की थाली सजाकर वाला जी को चंदन, पुष्प और अक्षत अर्पित करते हैं । अगरबत्तियाँ प्रज्ज्वलित कर सुगंधित धूप अर्पित की जाती है । तत्पश्चात सुबह की आरती 'सुख को निधान, जय जय सुख को निधान......' के गायन के साथ शुरू हो जाती है । आरती का तात्पर्य है, प्रभु की नजर उतारना । नीराजन, जिसका भाव परमात्मा को अपने नयनों में बसा लेना, उनकी छवि को आत्मसात कर लेना भी है । कहीं हमारे प्रीतम को हमारी ही नजर न लग जाए इसलिए सुबह के श्रृंगार पश्चात् प्रथम दर्शन के साथ ही प्रथम आरती अर्थात मंगल आरती, जिसमें सुख मिलता है, जो सुख का आधार है, जो सबका मंगल करने वाली है, की जाती है। आरती के पश्चात पुनः श्री प्राणनाथ प्यारे की जय बोलते हैं । (मुख्य जयकारा यहाँ श्री प्राणनाथ प्यारे की जय का है । भक्त गण रस विभोर होकर बाईजूराज की जय, महाराजा छत्रसाल जू की जय, श्री जी साहेब जी सदा मेहरबान भी सामूहिक स्वर में कहते हैं, जो भक्ति और श्रद्धा में वृद्धि करता है) सभी सुन्दरसाथ आरती की बाती से 'घी' का स्पर्श कर उसे आँखों में लगाकर धन्य होते हैं । इसके बाद परिक्रमा करते हुए परिक्रमा के पद गाते। है। (सप्ताह के प्रत्येक दिन का निर्धारित पद है, उसे ही गाया जाता है) जैसे- धामधनी श्री कृष्ण हमारे, परम निधान परम रूप प्यारे..... (मंगलवार) गुम्मट जी में परिक्रमा पूर्ण होने के पश्चात सभी भक्तगण (सुन्दरसाथ) बंगला जी मंदिर में आते हैं। यह दरबार हॉल है । यहाँ भी इसी प्रकार सुबह की प्रथम आरती अर्थात मंगल आरती होती है । अंत में जयकारा लगता है। 'घी' की बाती से घी का स्पर्श कर फिर दिन के अनुसार परिक्रमा सुबह की सेवा पूजा में प्राथमिकता भी बाईजूराज को है । भाव है कि वे सुबह से तैयार होकर आती हैं और गुम्मट जी मंदिर में वाला जी की आरती उतारती हैं । सेवा करती हैं । इसलिए बाईजूराज मंदिर में उठापन, अंगार आदि पहले ही हो जाता है । वहाँ मंगल आरती भी गुम्बट जी की । आरती से आधा घण्टा पूर्व अर्थात साढ़े पाँच बजे तक हो जाती है । इसी प्रकार सद्गुरु मंदिर में भी उठापन और श्रृंगार पहले हो जाता है और वहाँ की मंगल आरती भी गुम्मट जी की आरती के पूर्व साढ़े पाँच से छः के मध्य हो जाती है ।

बंगला जी में परिक्रमा समाप्त होने के पश्चात सभी सुन्दरसाथ लगभग पौने सात बजे पुनः गुम्मट जी में आ जाते हैं । अब यहाँ सामूहिक प्रार्थना होती है..... श्री प्राणनाथ जी सुमरिए...।' इसके पश्चात पुजारी जी या कोई विशेष भक्त प्रातः काल के स्वरूप का सस्वर पाठ करता है - 'श्री राज श्री ठकुरानी जी प्रथम भोम में... ।' (पन्ना में अधिकांशत: परमधाम की सेवा है) यहाँ बैठकर आप अपने प्रीतम को याद कर रहे हैं । परमधाम में हमारे वाला जी कैसे हैं ? श्यामा जी का कैसा श्रृंगार है ? इस समय वहाँ क्या हो रहा है ? इस सब को याद करते हुए हम यहाँ सेवा पूजा करते हैं । इस समय प्रभात की बेला में श्री राज, श्री ठकुरानी जी वहाँ रंगमहल प्रथम तल में किस प्रकार सिंहासन पर विराजमान हैं, उनकी वहाँ कैसी शोभा है । उनके कैसे वस्त्राभूषण हैं । उनका कैसा श्रृंगार है, इस संपूर्ण भाव की चितवनी हम यहाँ बैठकर प्रातः काल के स्वरूप गायन के साथ करते हैं । स्वरूप गायन के पश्चात वाला जी के लिए प्रथम कलेवा अर्थात बालभोग जिसमें मिष्ठान्न मेवा आदि परोसकर सामने का पर्दा गिरा दिया जाता है और पुजारी भोग का गायन करते हैं - 'बाईं आँख मेरी बेर बेर फरके... ।'

यह भोग पद छत्रसाल जी की रचना है । जब ब्रह्मवत् श्री प्राणनाथ जी यहाँ थे तब छत्रसाल स्वयं यह पद गाते हुए उन्हें सुबह का प्रथम भोजन (कलेवा) परोसते थे और अत्यंत प्रेम-विह्वल होकर उनसे आरोगने का आग्रह करते थे इस प्रसंग को याद करते हुए वालाजी को आज भी जो प्रथम कलेवा अर्पित किया जाता है, तब छत्रसाल जी के इसी पद का गायन होता है मानो छत्रसाल स्वयं उपस्थित होकर अपने प्रभु को प्रेम पूर्वक कलेवा करा रहे हैं । भोग अर्पित करने के बाद वालाजी को आचवन कराया जाता है आचमन गीत - 'आचमन कीजे कृपा निधान... यह पद भी छत्रसाल द्वारा रचित है वे स्वयं साथियों सहित आकर भोजन के पश्चात अपने प्रभु के हाथ धुलवाते और अन्य सेवा किया करते थे ।

कुछ देर बाद स्नान का समय हो गया। अब वालाजी आध्यात्मिक स्नान करेंगे। पर्दा गिरा दिया जाता है और पुजारी द्वारा स्नान पद गाते हुए बालाजी को स्नान कराया जाता है । 'मारा वालाजी चलो जमुना जल 'झीलिए' यह पद गाते हुए हम परमधाम में अपने वालाजी से आग्रह कर रहे हैं कि वालाजी चलिए, हम सब मिलकर जमुना जी के जल में स्नान करें पाट-घाट की देहरी में रामत करें, रत्न जड़ित महल में रंग विलास करें । आप हों, श्यामा जी हों और साथ में हम बारह हजार सखियाँ हों सब मिलकर कुंजवन की रेत में एक साथ दौड़ें फिर जो जिसको छू ले वह उसका ही हो जाए आप कमर में पीताम्बर कसे हुए, सीस पर मुकुट धारण किए हुए बहुत अच्छे लग रहे हैं। आप जब चलते हैं, तो झाँझर मधुर ध्वनि से बजते हैं । आपकी हेम कसब की ओढ़नी अच्छी है । चलिए, आपके साथ नूर बाग और फूल बाग में जाकर बैठें। वहाँ मुधर सुगंध फैल रही है । बड़ा वन और लाल चबूतरे पर बैठें, वहाँ सभी सखियों का समुदाय भी बैठा है और पशु-पक्षी विचरण करते हुए नवीन खेल दिखा रहे हैं । सखी हुआ साकुण्डल (छत्रसाल) ऐसी विनती करती हुई प्रसन्न चित्त श्री राज को सुंदर वनमाल पहनाती हैं ।

यह स्नान गीत भी छत्रसाल द्वारा रचित है। इसमें परमधाम की लीला का स्पष्ट वर्णन है । इसे गाते हुए हम वहाँ वालाजी के साथ स्नान लीला का स्मरण करते है । स्नान के पश्चात अब वाला जी को चंदन लगाया जाएगा जिसमें 'चलो सखी श्री सुंदरवरजीने निरखिए' पद गाया जाता है । परमधाम में सब सखियाँ अपने प्रीतम को घेरकर बैठ गईं। कोई सखी वेणु बजा रही है, कोई सितार, कोई पखावज, कोई स्वर मिला रही है - 'सखियाँ तो सनमुख वाणी गावें ।' श्यामा जी और सखियाँ एक ही हैं । उनकी तरफ से चंदन, पुष्प और सुगंधित पदार्थ वालाजी की सेवा में अर्पित किए जा रहे हैं । यह शोभा अत्यंत सुखदाई है । इसे सदा स्मरण रखना चाहिए । इस प्रकार पद को गाते हुए हम पुनः परमधाम में अपने मूल स्वरूप की याद करते हैं। धाम वर्णन के रूप में गाया जाता है -

'अब आओ रे इस्क भानूं हाम, देखूं वतन अपना निजधाम....।' महामति श्री प्राणनाथ बेहद पार का ज्ञान लाए । अतः बेहद पार के वर्णन के पूर्व उसके लिए मंगलाचरण गाया जाता है । 'क्षर अक्षर को छोड़ के, ए ताको मंगलाचरण ।' महामति की आराधना पद्धति में ज्ञानयोग, कर्मयोग, और भक्तियोग तीनों का संयोग दिखाई देता है । चंदन चढ़ावनी के बाद 'मंगलाचरण' का पाठ ज्ञान योग का एक पक्ष है, 'ब्रह्म सृष्टि लीजिए, हारे सैंया, ए है अपना जीवन....।' इस पद में परमधाम के विशिष्ट ज्ञान की महत्ता प्रतिपादित है बुद्ध निष्कलंक अवतार महामति श्री प्राणनाथ के पूर्व संतों, महात्माओं, ऋषियों और मुनियों ने चौदह लोकों के विभिन्न देवताओं निरंजन, निराकार, निर्गुण ब्रह्म तक की महिमा गाई है निराकार निर्गुण के आगे भी कुछ है यह किसी को ज्ञात न हो सका । इसलिए अंततः वेदों को ब्रह्म के लिए ‘नेति नेति' कहना पड़ा । महामति श्री प्राणनाथ ने निर्गुण, निराकार के परे परमधाम और वहाँ की लीला से जगत को परिचित कराया । मंगलाचरण के पद में इसी अखण्ड लीला के ज्ञान की महिमा गाई गई है । इसके पाठ से आपको अपनी मंजिल, अपने लक्ष्य की ओर प्रवृत्त होने का भाव घनीभूत होता है । अब सुबह के मंगल भोग का समय हो गया है । परमधाम में तीजी भोम की जो पड़साल है, धाम धनी इस समय वहाँ पर आकर विराजते हैं । चार-चार सखियाँ मिलकर राज-श्यामा जी का श्रृंगार करती हैं । अन्य सखियाँ भी अपने अपने मंदिर से अंगार करके लटकते, मटकते और झूमते हुए धनीजी से मिलने निकल पड़ीं हैं । इस प्रकार श्यामाजी सहित सखियाँ तीजी भोम की पड़साल में आकर धनी जी के चरण स्पर्श कर उन्हें प्रणाम करती हैं । सखियों सहित चार घड़ी धनीजी यहां बैठकर मेवा और मिठाइयाँ आरोगते हैं इस प्रकार भोग पद- 'तीजी भोम की जो पड़साल...' को गाकर हम परमधाम की लीला का स्मरण करते हुए पन्ना परमधाम में भी अपने धनी जी को मेवा और मिठाइयों का भोग लगाते हैं । पान बीड़ी आरोगावनी का पद 'आरोग्या रस रूप जुगल धनी...' का पद गाया जाता है ।

प्रणामी धर्म में पातिव्रत्य भाव की सेवा है । परमधाम में हमारे परम पति श्री राज सदा आनंद मग्न हैं। श्यामा जी उनकी अर्द्धांगिनी हैं एवं समस्त सखियाँ श्यामा जी का ही प्रतिरूप हैं । अतः सब मिलकर वहाँ पतिव्रत भाव से राज जी की सेवा में रहती हैं। यही भाव पन्ना धाम में भी स्थापित है । यहाँ के सभी सुन्दरसाथ पतिव्रत भाव से अपने वालाजी की सेवा पूजा करते हैं इधर बालाजी को भोग अर्पित हुआ, तो उसका प्रसाद सर्वप्रथम श्यामा जी अर्थात बाईजूराज के मंदिर में सेवादार द्वारा पहुँचाया जायगा तत्पश्चात वहाँ बाल भोग की सेवा होगी । इसी प्रकार बाल भोग का प्रसाद ब्रह्म चबूतरे पर स्थित श्री लालदास जी के स्मृति स्थल पर भी सेवादार ले जाकर उन्हें अर्पित करेंगे ।

सुबह के द्वितीय मंगल भोग के बाद पर्दा खुलता है । परमधाम में ठीक इसी समय अक्षर भगवान अपने स्वामी श्री राजजी के दर्शनार्थ पहुँचकर प्रणाम करते हैं । इस लीला का वर्णन 'दाहिनी तरफ दूजा जो मंदिर...' गाकर किया जाता है ।
 
झरोखे सामी नजर करें, परनाम करके पीछे फिरें ।
इत और न दूजा कोय, सरूप एक है लीला दोय ।
 
यहाँ स्पष्ट है कि अक्षर भगवान श्री राजजी के ही प्रतिरूप है । इस समय श्री राजजी के आसपास बहुत सारी सखियाँ विराजमान है। कोई वेणु बजा रही है, कोई सितार तो कोई मधुर स्वर में अपने प्रीतम का गुणगान कर रही है । इसके पश्चात श्री जी साहेब जी का स्वरूप, गाया जाता है - 'श्री जी साहेब जी का स्वरूप अपने चित्त के विखे लीजिए......। पन्ना धाम में श्री जी साहेब अर्थात महामति श्री प्राणनाथ जो स्वयं ब्रह्मवत हो गये थे, 11 वर्ष तक यहाँ रहे। उनकी क्या दिनचर्या थी, वे किस प्रकार सुन्दरसाथ को उपदेश देते थे ? बाईजूराज, छत्रसाल, लालदासजी, नवरंग स्वामी सहित सभी सुंदरसाथ उनकी सेवा में किस प्रकार संलग्न रहते थे ? महाम प्राणनाथ यहीं बैठकर परमात्मा के दिव्य धाम का दर्शन सबको कैसे कराते थे और किस प्रकार वहाँ का विस्तारपूर्वक वर्णन करते थे, इस स्वरूप के पाठ से पन्ना धाम में महाप्रभु की लीला और उनके द्वारा वर्णित परमधाम की बातें याद हो आती हैं । 'श्रीजी साहेबजी सर्वसाथ को, श्री राजजी श्री ठकुरानी जी को मूल स्वरूप तथा श्री निजधाम का वर्णन समस्त साथ के हृदय में भरावत हैं......।'

तत्पश्चात 'बड़ी अरजी' का पाठ किया जाता है । इस पाठ में धामधनी की नेमतों को याद किया गया है किस प्रकार हमने जिद करके आपसे दुःख का खेल माँगा, किस प्रकार हमारे लिए यह ब्रह्मांड बना, किस प्रकार इस ब्रह्मांड में हमारे लिए आपने पुराण और कुरान बातें कहलवाईं गीता, भागवत और पुराणों से आपने हमें तीनों सृष्टियाँ में अपनी (जीव, ईश्वरी और ब्रह्म) की पहिचान कराई । कुरान में वर्णित कयामत का वास्तविक अर्थ आपने हमें बताया । हदीसों के रहस्य खोलकर आपने हमें समझाए और किस प्रकार आपने हमें परमधाम की पहिचान कराई। इस प्रकार आपके अनंत-अनंत उपकार हमारे ऊपर है । हम तो आपसे यही विनती करते हैं- 'जिन तुम्हारे चरणामृत प्रसाद को आसरो लियो होए, शब्द वाणी कानों से सुनी होए, या जुबान से कही होए तिनको इन जहर जिमी से छुड़ाय के अपने कदमों तले बैठाय कर साक्षात दीदार दीजे, इनको नूर से पूर कीजे ।' इस प्रकार हम सब दिव्य जनों को प्रणाम करते हुए आपकी बेसुमार नेमतों के प्रति अपना अनुग्रह व्यक्त करते हैं ।

बड़ी अर्जी में यदि अनुग्रह और धन्यवाद की भावना प्रबल है, तो छोटी अर्जी में अपने दिल की बात खोलकर कही गई है। छोटी अर्जी अपने आप में संपूर्ण प्रार्थना है। इसमें थोड़े से शब्दों में ही अपनी पूरी बात कह दी गई है। शुरू में महामति प्राणनाथ उत्तम पुरुष अर्थात ब्रह्मसृष्टि की रहनी बताते हैं उनका भक्ति भाव व्यक्त करते हैं- 'साहेब सों सन्मुख सदा ब्रह्मसृष्टि की ये रीत'। बाद में वे अपना पूर्ण समर्पण व्यक्त करते हुए कहते हैं कि उन्हें बस अपने पिया जी की कृपा चाहिए, और कुछ नहीं । तुम तुमारे गुन न छोड़े, में तो करी बहुत दुष्टाई ।

मैं तो कर्म किए अति नीचे, पर तुमहीं राखी मूल सगाई ।

छोटी अर्जी में बार बार वे यह निवेदन करते हैं कि हे पिया, मैं असहाय हूँ । मैं कुछ नहीं कर सकती। मैं तो इस संसार में माया के चक्कर में भटक गई हूँ मेरे कर्म अच्छे नहीं रहे । मेरे भीतर दुष्टता समा गई है । बावजूद तुम्हारी कृपा में कोई कमी नहीं आई। मैंने अपने गुण-भक्ति छोड़ दिए परंतु आपने अपने सद्गुण (कृपा) कभी नहीं छोड़े। आपने हमेशा अपनी मूल सगाई को निभाया। अब तो बस एक ही बिनती है-'क्षण क्षण खबर लीजियो, मैं अरज करूं दुलहिन ।' इस प्रकार छोटी अर्जी आर्त्त मन की पुकार है । इसे पढ़ते हुए, गाते हुए हृदय द्रवित हो जाता है ।

अब सुबह के नौ बज रहे हैं। श्री जी अपने पूर्ण श्रृंगार के साथ सामने विराजे हैं। इसलिए अब पुजारी जी श्रृंगार आरती की तैयारी करेंगे । सामने आरती सजाकर पिया जी को चंदन, अक्षत और पुष्प अर्पित करके 'आरती करूं रे श्री जीवन मेहराज, पूरण सुख काज...' गाते हुए पिया जी की आरती उतारी जाती है । प्रत्येक आरती के बाद जिस प्रकार जयकारे की परंपरा है, उसी के अनुसार प्राणनाथ प्यारे की जय बोली जाती है एवं अन्य

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