About Nijanand Sampraday

 ॥ श्री राज सदा सहाय ॥ 


निजानन्दाचार्य श्री देवचन्द्रजी महाराज

इस सम्प्रदायके आदि आचार्य निजानन्दाचार्य श्रीदेवचन्द्रजी महाराज हैं । उनका जन्म इस्वी सन् १५८१ में मारवाड़ प्रदेशमें हुआ था । बाल्यकालसे ही उनमें धर्मके प्रति अभिरुचि थी । वे साधु-सन्तों तथा मन्दिरके पुजारियोंसे धर्मचर्चा सुनकर मग्न रहते थे । सोलह वर्षकी आयुमें गृहत्याग कर वे परम सत्यकी खोजमें निकले । उनके मनमें मैं कौन हूँ, यह दृश्यमान जगत क्या है, इसके रचयिता परमात्मा कहाँ रहते हैं, उनके साथ मेरा सम्बन्ध है या नहीं ?आदि जिज्ञासाएँ थी । इन जिज्ञासाओंको शान्त करनेके लिए वे नौ वर्ष पर्यन्त कच्छके विभिन्न धर्मस्थानोंमें विचरण कर सौराष्ट्र(गुजरात)की पवित्र भूमि जामनगर पहुँचे ।

परमात्माका साक्षात्कार

जामनगर पहुँचकर उन्होंने विभिन्न धर्मस्थानोंमें खोज की । अन्तमें श्यामजीके मन्दिरमें कानजी भट्ट नामके विद्वानसे श्रीमद्भागवतकी कथा श्रवण करने लगे । इस प्रकार कथा श्रवण करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हुए । बीच-बीचमें अनेक कठियाइयाँ आइंर् तथापि वे उनकी अवगणना करते हुए आगे बढे़ । एक दिन कथा सुनते हुए प्रेममें इतने मग्न हो गये कि उसी समय पूर्णब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्णजीने उनको साक्षात् दर्शन दिए एवं मनकी सम्पूर्ण जिज्ञासाओंको शान्त किया । उन्होंने पातालसे परमधाम पर्यन्तका ज्ञान देकर ब्रह्मधाम-परमधामकी लीलाओंका रहस्य समझाया और कहा, 'परमधामकी ब्रह्मात्माएँ नश्वर जगतका खेल देखनेके लिए सुरताके रूपमें आकर इस जगतके खेलमें भूल गई हैं । उनको जागृत कर परमधामका अनुभव करवानेके लिए तारतम ज्ञानके साथ-साथ तारतम मन्त्र प्रदान कर मैं तुम्हें यह दायित्व सौंपता हूँ ।' ऐसा कहकर श्री कृष्णजीने उनको षोडशाक्षर तारतम मन्त्र प्रदान किया एवं स्वयं उनके हृदयमें विराजमान हुए ।

धर्मपीठ की स्थापना


इस प्रकार ब्रह्मसाक्षात्कार एवं ब्रह्मज्ञानकी प्राप्ति होनेपर निजानन्दाचार्य श्रीदेवचन्द्रजी महाराजने ब्रह्मात्माओंको जागृत करना आरम्भ किया और अपने वरदहस्तसे इस्वी सन् १६३० में धर्मपीठकी स्थापना कर उसे 'नवनतपुरी धाम'नामाभिधान किया । दिन प्रतिदिन सत्सङ्ग चर्चामें अभिवृद्धि होती गई । अनेक आत्माओंमें जागृति आयी । ऐसी महान् आत्माओंमें जामनगरके तत्कालीन मन्त्री केशवरायके सुपुत्र श्री मेहेराजका स्थान सर्वोच्च है । वे कालान्तरमें महामति प्राणनाथके नामसे प्रसिद्ध हुए ।

महामति श्री प्राणनाथजी


महामति श्री प्राणनाथजीका जन्म इस्वी सन् १६१८ में जामनगर, गुजरातमें हुआ । वे मात्र बारह वर्षकी आयुमें निजानन्दाचार्य श्री देवचन्द्रजीके मेहराज शिष्य बने एवं अल्पकालमें ही ज्ञान तथा साधनाके द्वारा आत्माको जागृत कर उन्होंने ब्रह्मज्ञानके प्रचार-प्रसार तथा ब्रह्मात्माओंकी जागृतिका उत्तराधिकार प्राप्त किया । उन्होंने सदैव अपने सद्गुरुकी आज्ञामें रहकर कार्य किया तथा उनके धामगमन(देहविलय)के पश्चात् ब्रह्मज्ञानके प्रचार-प्रसारके लिए देश-विदेशकी यात्रा की । इसी यात्रामें उन्होंने पन्नामें धर्मपीठकी स्थापना की । सूरतमें भी सत्रह महीने पर्यन्त रहकर धर्मचर्चा की । उनके ज्ञानसे प्रभावित होकर अनेक दिग्गज विद्वान उनके शिष्य बने । कालान्तरमें वहाँ भी धर्मपीठकी स्थापना हुई । इस प्रकार जामनगरमें नवतनपुरी धाम, सुरतमें महामंगलपुरी धाम तथा पन्नामें पद्मावतीपुरी धाम; ये तीनों स्थान तीर्थके रूपमें प्रसिद्ध हुए । महामति श्रीप्राणनाथजीने देश-विदेशमें परिभ्रमण करते हुए अनेक राजा,महाराजाओंको मुगल शासकोंके अत्याचारसे पीडित हिन्दू प्रजाकी पीडाको दूर करनेके लिए मुगल शासकोंके विरुद्ध तैयार किया । उन्होंने हिन्दू धर्ममें प्रचलित बाह्यआडम्बर एवं रूढि़वादको दूर कर स्वस्थ, प्रबुद्ध एवं जागृत समाजके निर्माणका प्रयत्न किया एवं विभिन्न देवी-देवताओं तथा अवतारोंकी मान्यताओंको स्पष्ट करते हुए परम सत्यके रूपमें एक परब्रह्म परमात्माकी बात कही । महामति श्री प्राणनाथजी द्वारा प्रसारित श्री कृष्ण प्रणामी धर्मका विस्तार उनके बाद भी बढ़ता गया । आज भारतके प्रायः सभी प्रान्तोंमें तथा भारतसे बाहर नेपाल एवं भूटानमें मिलाकर ८०० से अधिक मन्दिर तथा आध्यात्मिक एवं सामाजिक केन्द्र ब्रह्मज्ञान तथा संस्कृतिके प्रचार-प्रसारके लिए विशेष कार्य कर रहे हैं । अमेरिका, यूरोप तथा केनेडामें भी मन्दिर तथा धर्मके केन्द्र कार्यरत हैं ।

तारतम सागर 


निजानन्दाचार्य श्री देवचन्द्रजी महाराजके सिद्धान्तों तथा ब्रह्मज्ञानका अनुसरण कर उनके प्रमुख शिष्य महामति श्री प्राणनाथजीने उनकी आज्ञासे देश-विदेशमें भ्रमण करते हुए धर्मका प्रचार-प्रसार किया । उस समय उन्होंने अपने उपदेशोंसे अनेक आत्माओंको जागृत किया । उन उपदेशोंका संग्रह तारतम सागर नामसे प्रसिद्ध है जिसमें धर्मके सम्पूर्ण सिद्धान्त तथा दर्शन समाविष्ट हैं । निजानन्दाचार्य श्री देवचन्द्रजी तथा महामति श्री प्राणनाथजीके जीवन चरित्रके ऐतिहासिक ग्रन्थको वीतक कहा जाता है । सम्प्रदायमें आज अनेक वीतक पद्य तथा गद्यके रूपमें उपलब्ध हैं । श्री तारतम सागर ग्रन्थ रास, प्रकाश, षट्ऋतु, कलश,सनन्ध, किरन्तन, खुलासा, खिलवत,परिक्रमा, सागर, सिनगार, सिन्धी, मारफत सागर, कयामतनामा प्रभृति चौदह अवान्तर ग्रन्थोंका संग्रह है । इसमें कुल १८७५८ चौपाईयाँ संकलित हैं । इस विशालकाय ग्रन्थमें धर्मके सिद्धान्त, दर्शन, साधना पद्धति तथा मान्यताके साथ-साथ परब्रह्म परमात्माके धाम, स्वरूप,नाम एवं लीलाका विशद वर्णन है । धर्ममें प्रचलित विभिन्न मत-मतान्तर तथा बाह्य आडम्बरका उल्लेख करते हुए उनसे मुक्त होकर धर्मके शुद्ध स्वरूपके अनुसरणकी प्रक्रिया तथा एक उदात्त,सुशिक्षित तथा स्वस्थ समाजकी रचनाकी बात इसमें कही गयी है ।

श्री कृष्ण प्रणामी धर्म में निर्दिष्ट तत्त्वज्ञान

 श्री कृष्ण प्रणामी धर्ममें तारतम ज्ञान एवं प्रेमलक्षणा भक्तिका विशेष महत्त्व बताया गया है । तारतम ज्ञानके द्वारा आत्मा, परमात्मा एवं परमधामकी पहचान होती है और प्रेमलक्षणा भक्तिके द्वारा उनका अनुभव होता है । तारतम ज्ञान यथार्थ ज्ञान है । जगतकी नश्वरता,पातालसे सतलोक पर्यन्तकी परिवर्तनशीलता सहित समग्र क्षर ब्रह्माण्डकी जानकारीके साथ-साथ अविनाशी ब्रह्मधामका तारतम्य यथार्थ रूपमें समझानेके कारण इसे तारतम ज्ञान कहा गया है ।

यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड एवं इसके संचालनमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानेवाली विभिन्न विभूतियाँ-देवीदेवताओंसे लेकर भगवान नारायण पर्यन्त सभी व्यष्टि-समष्टि परमात्माके क्षर स्वरूपमें आते हैं । यह सम्पूर्ण ब्रह्म क्षर कहलाता है ऐसे अनन्त ब्रह्माण्डोंका सर्जन करनेवाला परमात्माका दूसरा स्वरूप कार्यब्रह्म अथवा अक्षर ब्रह्म कहलाता है । जिसमें प्रणव ब्रह्म, गोलोक धाम, केवलब्रह्म, सत्स्वरूप आदि सभी समाविष्ट हैं । अक्षरब्रह्मको उनके कार्यके लिये प्रेरणा एवं निर्देशन प्रदान करनेवाला परमात्माका मूल स्वरूप है वह अक्षरसे भी उत्कृष्ट 'अक्षरात् परतः परः' होनेसे उसे अक्षरातीत, उत्तम पुरुष, परम सत्य आदि शब्दोंके द्वारा निर्दिष्ट किया है । सम्प्रदायमें उनको ही श्री कृष्णजी अथवा श्री राजजी नामसे पुकारा जाता है ।

ब्रह्मके तीन स्वरूपकी भाँति चेतना (जीव) के भी तीन स्वरूप कहे गये हैं; वे हैं जीवसृष्टि,ईश्वरीसृष्टि एवं ब्रह्मसृष्टि । जीवसृष्टिका कार्यक्षेत्र क्षर जगत् होनेसे उनका मुख्य सम्बन्ध भी क्षर ब्रह्म अर्थात् भगवान नारायण एवं अन्य क्षर विभूतियोंके साथ है । ईश्वरीसृष्टिका सम्बन्ध कार्यब्रह्म अक्षरब्रह्मसे है और ब्रह्मसृष्टिका मूल सम्बन्ध अक्षरातीत ब्रह्म श्री कृष्णजी अर्थात् श्री राजजीके साथ है । जीवसृष्टि नश्वर खेलके मुख्य पात्र हैं । ब्रह्मात्माएँ अथवा ईश्वरी आत्मायें जगतका खेल देखनेके लिए हैं । जीवसृष्टिको नश्वर जगत प्रिय लगता है । उनको सामान्यतया परमात्माके प्रति लेशमात्र भी रुचि नहीं होती है । जबकि ब्रह्मसृष्टि एवं ईश्वरीसृष्टि यात्रियोंकी भाँति जगतकी यात्राका आनन्द लेती हैं । परन्तु वे भी माया-मोहके प्रभावमें आकर स्वयंको, अपने स्वामी परमात्मा एवं अपने धाम परमधामको भूल गयीं । उन्हें जागृत करनेके लिए तारतम ज्ञानका अवतरण हुआ है । इसके द्वारा जागृत होने पर हृदयमें प्रेमभाव प्रगट होगा । प्रेमसे परमात्माका अनुभव होगा । प्रेम ब्रह्मका ही स्वरूप है । परमात्माके प्रति अनन्य भावको पतिव्रता भाव कहा गया है । ईश्वरीसृष्टि ब्रह्मकी ऐश्वर्य लीलाके पात्र हैं एवं ब्रह्मसृष्टि प्रेम लीलाके पात्र हैं । उन्हें नश्वर जगतका खेल देखते हुए जलकमलवत् रहना होता है । किन्तु जागृत् होने पर ही यह संभव है । इसलिए श्री कृष्ण प्रणामी धर्ममें आत्मजागृति पर विशेष बल दिया गया है 
!! प्रणाम !!

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