बीज मंत्र श्री तारतम


बीज मंत्र श्री तारतम 

'श्री कुलजम सरूप' का मूल स्रोत अनन्य भक्ति भावपूर्वक अनादि अक्षरातीत श्री कृष्ण को उद्दिष्ट करके बोला गया बीज मंत्र तारतम जागनी के ब्रह्माण्ड में परमधाम से अवतरित ऐसा मूल मंत्र है जिसकी दुनियाँ के सभी प्राणी सृष्टि के आदिकाल से राह देख रहे थे और वे सब इसी आशा में थे कि परमधाम की ब्रह्मात्माएँ इस सौभाग्यशाली पृथ्वी पर आकर इसी मूल मंत्र 'निजनाम' द्वारा संसार के समस्त जीवों को अखण्ड मुक्ति प्रदान करेंगी :- 

निजनाम सोई जाहेर हुआ, जाकी सब दुनी राह देखत ।
मुक्ति देसी ब्रह्माण्ड को, आए ब्रह्म आतम सत ।। (किरंतन 76/1)

अनन्य श्रद्धा-भक्ति के साथ निजनाम 'जप' करने से इस मूलमंत्र तारतम में विराजमान सच्चिदानन्द विग्रह अनन्त स्वलीलाद्वैत-पूर्णब्रह्म के साक्षात् दर्शन होते हैं। बीजमंत्र तारतम ही परमधाम के अखंड आनन्द का अजस्र-स्रोत है, जिसकी प्रत्यक्ष प्राप्ति बीजमंत्र के 16 अक्षरों में होती है।

बीज छोटा-सा होता है लेकिन उसके अंदर विशाल वृक्ष की समस्त विशेषताएँ सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहती है। परमाणु तनिक-सा होता है, पर उसकी अंतरंग क्षमता गतिशीलता को देखकर आधुनिक मानव भी आश्चर्यचकित है।

इस प्रकार बीज मंत्र तारतम परमधाम के असीम, अनन्त एवं अखंड सुखों के साथ महामति श्री प्राणनाथ जी द्वारा प्रदत्त निजानंद का अजस्र स्त्रोत है : :-

ए सुख देऊं ब्रह्मसृष्ट को, तो मैं अंगना नार । (तारतम)
सुख देऊ, सुख लेऊ, सुखे जगाऊं साथ ।। (कलस 23/68)

परमधाम में सुन्दरसाथ के अखंड सुख का प्रमुख आधार वाहेदत (एक दिली) या एकात्मीयता है । इस द्वैतवादी दुनिया में आज 'एक दिली' अर्थात् एकात्मीयता की सर्वाधिक आवश्यकता है । 'एक सबके लिए और सब एक के लिए' यह शाश्वत सिद्धान्त है सुन्दरसाथ के सामूहिक जीवन जीने का । सुन्दरसाथ की इस सार्वभौम कल्याणकारी पद्धति के आधार पर 'सुख सीतल करूं संसार' एवं 'होसी अखंड ए संसार' का संकल्प पूर्णतः साकार हो सकता है । अतएव बीजमंत्र तारतम ऐसा विश्वकल्याण कारी मूलमंत्र है जिसकी जप-साधना से आज के इस अंधकारमय युग का निराकरण और परमोज्जवल भविष्य का शुभारम्भ 'एक दिली' की इसी दिव्य भावना के साथ प्रादुर्भूत हो सकता है और हम सब अपने इन्हीं चर्मचक्षुओं से प्रत्यक्ष देख सकते हैं :- 

सारों मिने सिरोमन, होसी अखंड ए संसार । (कलस 20/33)

साथ जी इन जिमी के, सुख देऊं अति अपार ।
हंस हंस हेतें हरख में, तुम नाचसी निरधार।। (कलस 23/16)

श्री प्राणनाथ जी अपने प्राण प्रिय सुन्दरसाथ जी से कहते हैं कि मैं तुम्हें इसी संसार में परमधाम के अनन्त सुख देना चाहता हूँ तारतम द्वारा उन्हें प्राप्त कर तुम सब निश्चित ही परस्पर प्रेमपूर्वक आनन्दित और हर्षित होकर नाच उठोगे ।

बीज मंत्र तारतम के अनेक शब्दार्थ और भावार्थ हैं। यह बीजमंत्र अज्ञान रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की यात्रा में, असत्य से सत्य की ओर ले चलने में और मृत्यु से अमृत की खोज के लिये एक अद्वितीय साधन है । इस षोड़शाक्षरी बीजमंत्र का मुख्य उद्देश्य 'तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सद्गमय और मृत्योर्मामृतं गमय' की वैदिक प्रार्थना को प्राणी मात्र के लिए पूर्ण सफल करने का है इस बीज मंत्र के जप द्वारा अनादि अक्षरातीत, सच्चिदानन्द स्वरूप श्री कृष्ण के परम रहस्य को समझा और पाया जा सकता है । मानव सुख-शान्ति और समृद्धि की प्राप्ति के लिए जितना भौतिक जगत में जी-जान से खोज कर रहा है, अन्वेषण या परीक्षण कर रहा है, उससे तो उसे और भी दुःख, संताप और अशान्ति की ही प्राप्ति हो रही है बीजमंत्र तारतम के अभाव में वह विनाश की ओर ही द्रुतगति से भाग रहा है सुख-शान्ति और समृद्धि के सारे भौतिक प्रयास मृगमरीचिका की भाँति असफल सिद्ध हो रहे हैं।

अतः भौतिक सुखों के पीछे भटकना छोड़कर बीजमंत्र तारतम की जगमगा रही परम ज्योति को आत्म-दृष्टि से देखो, उसी में शाश्वत सुख, परम शान्ति और अखंड आनन्द है । सच्चिदानंद स्वरूप श्री कृष्ण ही अनादि अक्षरातीत और अखंड परमधाम के स्वामी हैं । षोड़शाक्षरी बीज मंत्र तारतम अनन्य निष्ठापूर्वक जप कर उनके दर्शन या साक्षात्कार किया जा सकता है । किन्तु बाह्य नेत्रों द्वारा यह सम्भव नहीं, आत्मा की दिव्य दृष्टि से अर्थात् रूह की नजरों से ही उन दिव्य स्वरूप के दर्शन किये जा सकते हैं-

देख तूं निसबत अपनी, मेरी रूह तूं आंखां खोल ।
तैं तेरे कानों सुने, हक बका के बोल ।। (खिलवत 9/1)

ओ मेरी आत्मा ! तू अपनी आँखें बीज मंत्र तारतम-ज्ञान द्वारा खोलकर अनादि से अपने अंगी - अंगना के नित्य सम्बन्ध को देख और आत्मा के कानों से अनादि अक्षरातीत श्री कृष्ण की दिव्यवाणी का प्रत्यक्ष श्रवण कर ।

यथार्थ में षोडशाक्षरी बीज मंत्र 'तारतम' प्रियतम परमात्मा की प्रत्यक्ष पहचान है भाषा शब्द कोश में 'तार' शब्द 'प्रणव' या ॐकार का बोधक है। (Suffix) के रूप में 'तर' शब्द तुलनात्मक (Comparative) गुण वाचक विशेषता है, जो दो वस्तुओं में से एक का उत्कर्ष या अपकर्ष सूचित करता है । जैसे-श्रेष्ठतर, उच्चतर आदि। यहां पर 'तार तर' शब्द प्रणव ब्रह्म से परे अक्षर ब्रह्म और 'तारतम' शब्द में 'तम' शब्द उत्कृष्ट (Su- perlative degree) के रूप में सर्वोत्तम अर्थात् क्षर, अक्षर से परे अक्षरातीत ब्रह्म का द्योतक है । इस प्रकार 'तारतम' शब्द ही अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म का वाचक है।

भारतीय भाषा विज्ञान के अनुसार उत्कृष्ट (Superlative degree) का प्रयोग 'तम' रूप में इस प्रकार होता है-श्रेष्ठ, श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम, उच्च, उच्चतर और उच्चतम । यहाँ तारतम शब्द इसी प्रकार तार, तारतर और तारतम 'तम' प्रत्यय से उत्कृष्ट अक्षरातीत पूर्णब्रह्म का द्योतक है। अतः 'तारतम' शब्द 'तम' उत्कृष्ट प्रत्यय लगकर प्रणव और अक्षर ब्रह्म से उत्तम सिद्ध किया गया है। शास्त्र का अमर सूत्र है- तारतम्येन जानाति सच्चिदानंद लक्षणम् अर्थात् बीज मंत्र 'तारतम्य' द्वारा ही सच्चिदानंद स्वरूप अनादि अक्षरातीत श्री कृष्ण का तात्विक ज्ञान होता है । यहाँ 'तारतम्य' शब्द (तारतम+घञ्) से क्रमांक, अनुपात, न्यूनाधिक्य, अर्थात् के क्रम का बोध होता है। क्षर, अक्षर और अक्षरातीत तीन प्रकार के पुरुषों में से न्यूनाधिक्य अक्षरातीत पुरुषोत्तम की पहिचान होती है । क्षर शब्द में 'अ' उपसर्ग लगाने से 'अक्षर' शब्द बनता है और 'अक्षर' में अतीत प्रत्यय लगाने से अक्षरातीत शब्द निर्मित होता है। क्षर पुरुष विनाशशील है। अर्थात् 'क्षरः सर्वाणि भूतानि' (गीता-15/16) पंचभूत- पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश द्वारा रचित सम्पूर्ण सृष्टि क्षर-विनाशशील है और अक्षर सदा सर्वदा कूटस्थ - अचल-नित्य एक सा अविनाशी है- 'कूटस्थोऽक्षर उच्यते' ।

उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य विभर्त्यव्यय ईश्वरः ।। (गीता -15-17)

क्षर और अक्षर दोनों से श्रेष्ठ उत्तमपुरुष सर्वश्रेष्ठ अनादि-अक्षरातीत है, जो क्षर, अक्षर और अक्षरातीत तीनों पुरुषों के क्रमशः वैकुण्ठ, अक्षरधाम और परमधाम तीनो लोकों में ‍ धारण-पालन करते हुये ईश्वरों के ईश्वर अनादि अक्षरातीत हैं । इसी प्रकार शास्त्र सिद्धान्त के अनुसार इन तीनों लोकों की तीन सृष्टि भी हैं । क्षर लोक की जीव सृष्टि, अक्षर लोक की ईश्वर सृष्टि और अखण्ड परमधाम की ब्रह्मसृष्टि ।

अखंड परमधाम के परम पावन प्रसंग में श्री कृष्ण स्वयं गीता के माध्यम से कहते हैं कि उस स्वयं प्रकाशवान परमधाम को न सूर्य, न चन्द्रमा, न तारागण और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है । उस परमधाम को प्राप्त कर कोई भी आत्मा इस प्राकृत जगत क्षर लोक में फिर कभी वापस नहीं आती-

न तद्भासयते सूर्यो

न शशांको न पावकः ।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते

तद्धाम परमं मम ।। (गीता 15/6)

श्री मुकुन्ददास जी कहते हैं :-

चाँद सूरज की गम नहीं, नहीं पावक को काम ।

पहुँचे सो आवे नहीं, सोई मुकुन्द निजधाम ।।

अतएव तारतम्य बीज मंत्र द्वारा क्षर, अक्षर और अक्षरातीत तीनों पुरुषों का न्यूनाधिक्य क्रम से अनादि अक्षरातीत श्री कृष्ण का ज्ञान होता है ब्रह्ममुनि श्री नवरंग स्वामी जी 'चिद् विलास' में कहते हैं-

सब मंत्रन का मंत्र है, सब यंत्रन का यंत्र ।
सब तंत्रन का तंत्र है, चिदानंद यह मंत्र ।।

निजनाम पढ़ा तिन सब पढ़ा, सब मंत्रन का भेद ।
निजनाम बिना खाली गया, पढ़ पढ़ चारों वेद ॥ 

है चिदानंद स्वरूप को, तारतम मूल मंत्र ।
ए ही मंत्र ते पाइए, चिदानंद को तंत्र ॥

ऐसे तारतम निज मंत्र निज, चिद्घन शक्ति प्रकाश ।
इससे आदि अनादि को, ब्रह्मानंद विलास ।। (चित् विलास)

इस बीज मंत्र तारतम का बल, अनंत, असीम और विलक्षण है । इस बीज मंत्र के जपने मात्र से जन्म-मरण का चक्कर मिट जाता है और अनंत सुखों की प्राप्ति होती है :

महमायात्संतारयति तस्मात्तारकम् ।
तस्मादन्तर्दृष्ट्या तारकरेवानुसंधेमः ।। (अश्रुति)

महामति श्री प्राणनाथ जी कहते हैं-

बोहोतक धन ल्याए धनी धाम थे, बिध बिध के परकार ।
सो ए सब मैं तौलिया, तारतम सबमें सार ॥ 

तारतम को बल कोई न जाने, एक जाने मूल सरूप ।
मूल सरूप की चित्त की बातें, तारतम में कई रूप ॥ (कलस 23/54-55)
तारतम रस वानी कर, पिलाइए जाको ।
जेहेर चढ्या होए जिमी का, सुख होए ताको ॥ 
जेहेर उतारने साथ को, ल्याए तारतम ।
बेहद का रस श्रवने, पिलावे हम ॥ 
एही रस तारतम का, चढ्या जेहेर उतारे ।
निरविषी काया करे, जीव जागे करारे ॥ प्रकास 31/137,139,142)

श्री महामति जी कहते हैं कि अखंड परमधाम से मेरे प्रियतम धामधनी बहुत सी दिव्य निधियाँ (संपत्ति) - इश्क, इल्म, निसबत, वाहेदत, मेहर आदि लाये हैं। मैंने इन सबको तौलकर देखा तो, मूलमंत्र तारतम इन सर्वश्रेष्ठ अनुभव हुआ-वही सबका सार है । तारतम मंत्र में निहित अनन्त दिव्य शक्तियों को कोई जान नहीं सकता । इसे स्वयं मूल स्वरूप- अनादि अक्षरातीत श्री कृष्ण ही जानते हैं । मूल स्वरूप धामधनी के अन्तस् की अनन्त रहस्यों की व्याख्या 'तारतम वाणी' श्री तारतम सागर में अनेक प्रकार से की गई है ।

जिस किसी को भी मायावी जगत का विष चढ़ा हो, उसे इस तारतम ज्ञान का रस पान करवा दिया जाय, तो उसे परमधाम की अखंड सुख की प्राप्ति हो जाती है। जिन जीवों की भ्रम-निद्रा नहीं टूट रही है, तारतम ज्ञान का रस उन्हें तत्काल पूर्णरूपेण जागृत कर देता है । इस प्राकृत जगत में माया की प्रबल शक्ति से ब्रह्मात्माओं को मुक्त कराने के लिए. प्रियतम धामधनी परमधाम यह विलक्षण शक्ति तारतम लाए हैं और इसके द्वारा माया का विष उतारने के लिए मंत्रराज तारतम का रस अपने प्राणप्रिय सुन्दरसाथ के श्रवणों में उड़ेल रहे हैं।

माया का कितना भी विष चढ़ा हो, मंत्रराज तारतम का अमृतमयी रस उसे पूर्णतः दूर कर देता है । इस बीज मंत्र तारतम का यह रस पांचभौतिक शरीर के सभी प्रकार के विष को दूर कर उसे निर्विकार बना देता है एवं जीव को जगाकर अखंड आनन्द प्रदान करता है ।

'मंत्र' शब्द 'मत्रि' धातु से निकला है, जिसका भावार्थ है अपने इष्ट-प्रियतम परमात्मा को सम्बोधन कर परम गोपनीय प्रभाषण- जिससे प्रार्थना पूरक मंत्र की दिव्य ध्वनि आत्मा के कानों में धीमे स्वर में सुनाने लगे । जब मंत्र मौन होकर हृदय से प्रेम पूर्वक एकान्त में उच्चरित होता है, तो विशिष्ट रूप से उसका उच्चतम परिणाम परमधामप्रद होता है । तारतम वाणी का विशेष विधान है कि बीज मंत्र तारतम जप जितना ही गुप्त रखा जाता है, उतनी ही उसमें परमधाम की अनन्त दिव्य शक्ति प्रगट होती है-

छिपके साहेब कीजे याद । (तारतम वाणी)

बीज मंत्र तारतम-जो सोलह दिव्य अक्षरों में अभिव्यक्त किया गया है, वह अति सूक्ष्म एवं परमधाम की परम गोपनीय रहस्य मयी दिव्य शक्ति से परिपूर्ण और आविष्ठ है। इसके प्रत्येक शब्द परमधाम की अनुपम शोभा से सम्पन्न है लौकिक शब्द भी प्रियतम श्री प्राणनाथ जी के मुखारविन्द से अवतरित होकर परमधाम की दिव्य ऊर्जा से परिपूर्ण हैं-

वाणी मेरे पिऊ की, न्यारी जो संसार । 

अतएव 'श्री तारतम वाणी' स्वतः प्रमाण है। किसी को भी उसमें हेर-फेर ननु-न च (कमवेशी) करने का किसी प्रकार अधिकार नहीं है। इस प्रकार बीज मंत्र में या तारतम सागर में भी किसी भी जप करने वाले-पाठ- पारायण करने वाले या श्रोताओं को कदापि हेर-फेर या ननु न च नहीं करना चाहिए, अन्यथा जप या पाठ-पूजा का कोई भी फल नहीं होता-यदि कोई बीज मंत्र में या तारतम वाणी में किसी प्रकार की हेर-फेर करता है, तो यह उसकी अनधिकार चेष्टा है एवं यह उसका मूल अपराध की श्रेणी का निन्दनीय कार्य माना जाएगा, क्योंकि तारतम मंत्र या तारतम वाणी को मंत्र में 'वाणी मेरे पिउ की' कहा गया है ।

षोडशाक्षरी बीज मंत्र 'तारतम' दो चरणों में है। प्रथम चरण 'निजनाम श्री कृष्ण जी और दूसरा चरण 'अनादि अक्षरातीत' मूल मंत्र छः चौपाइयों, चौबीस चरणों तथा दो सौ पन्द्रह अक्षरों में हैं। मूल मंत्र निजनाम की छः चौपाइयों का विस्तार 112 चौपाइयों में श्री प्रगटवाणी और श्री प्रगटवाणी का विस्तार संपूर्ण श्री तारतम सागर (श्री कुलजम सरूप) कुल 526 प्रकरणों तथा 18758 चौपाइयों में हैं।

संस्कृत भाषाकोश के अनुसार "निज” शब्द का अर्थ- स्वकीय, निरंतर रहने वाला, चिरस्थाई एवं नित्य है । 'नाम' शब्द की व्युत्पत्ति म्ना धातु के स्थान पर 'ना' आदेश करने अथवा आदि अक्षर 'नकार' का लोप करने और 'मनिन्' प्रत्यय के संबन्ध से होती है। जो पुनः पुनः अर्थ, ज्ञान एवं लीला-कार्य बोधन के लिये आम्रेडित किया जाये वह नाम है । पुनः पुनः आवृति अर्थात् बार-बार जप करने का गौरव निजनाम मंत्र को ही प्राप्त है। क्योंकि- 'श्वांस श्वांस निजनाम जपो' और 'नाम तत्व कहिये श्री कृष्ण जी' आदि से स्वतः प्रमाणित है कि अनादि अक्षरातीत श्री कृष्ण के निजनाम मंत्र की श्वास-श्वास में आवृति की जाती है।

खेल नाम धर्या सब केहेने को, ए जरा नहीं अरस माहे । (सागर 26/22)
नाम तत्व कह्यं श्री कृष्ण जी, जो खेले अखंड लीला रास । (किरंतन 64/7)


लेखक : साध्वी श्री श्यामलता देवी शास्त्री वृन्दावन (उ.प्र.)

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