मोह, माया और भ्रम के संसार में तारतम ज्ञान से जागनी रासलीला


मोह, माया और भ्रम के संसार में तारतम ज्ञान से जागनी रासलीला

प्रसार

यह संसार मोह (आसक्ति) का सागर है। यह बड़ा ही अद्भुत रहस्यमय एवं विचित्र है। यहाँ जीव अनेक प्रकार के अद्भुत शरीर धारण कर अनेक रहस्यमय कार्य, कारण, क्रिया एवं परिणाम स्वरूप इस जगत की यात्रा पर आता है और परमात्मा की परम कृपा. आदेश एवं अपने पुरुषार्थ कार्य, मनोबल व आत्मबल के आधार पर वह उन्नति करता है और प्रसिद्ध होता है। परमात्मा जिस जीवात्मा को जिस कार्य के लिए जगत में भेजते हैं, वह व्यक्ति समय के साथ उस कार्य को करता है। समय आने पर वह कार्य प्रारंभ होता है और पूर्ण भी होता है। परमात्मा द्वारा सौंपे गए उस कार्य के पूर्ण हो जाने पर परमात्मा की आज्ञा से वह व्यक्ति संसार-मंच पर से अंतिम विदा लेकर प्रसिद्धि एवं अमरत्व प्राप्त करता है।




मानव के विकास के लिए इस विशाल विश्व में प्रमुख दो क्षेत्र हैं। एक भौतिक विकास और दूसरा है आध्यात्मिक विकास । जगत में भौतिक विकास निरंतर अबाध रूप से होता है। आध्यात्मिक विकास के क्षेत्र वेद, उपनिषद्, ब्रह्मसूत्र, पुराण ग्रंथ, रामायण, गीता, श्रीमद् भागवत और श्री तारतम सागर इत्यादि हैं। इन आध्यात्मिक ग्रंथों के चिंतन, मनन, अध्ययन एवं आचरण से हमारा भौतिक जीवन एवं आध्यात्मिक जीवन सार्थक, शांतिमय, सुखमय एवं आनंदमय होता है। वैसे देखा जाए तो प्रत्येक जीवधारी शरीर एवं पदार्थ के प्रमुख तीन बिन्दु हैं - उत्पत्ति, स्थिति, और लय अर्थात सुख-दुख रोग, भोग, सुविधाएं, सत्ता-सुख एवं काल क्रमानुसार नाश या मृत्यु । यदि मानव अपनी सांसारिक जीवन यात्रा में केवल संसारी ही बना रहा और श्रद्धा आस्थापूर्वक सद्गुरु की शरण में जाकर आत्म चिंतन द्वारा अपनी आत्म जागृति नहीं की, माया ब्रह्म का सूक्ष्म भेद नहीं जाना, उसे अपनी आत्मा का मूल घर परमधाम के अखंडानन्द की याद (स्मृति) नहीं आई, तो अवश्य यह मानिए कि वह जीव पुन: अनेकानेक शरीर धारण करके मोह, माया, अज्ञान, भ्रम, मोह-निद्रा में फंस जाएगा और परम मुक्ति अर्थात परमानन्द से सदा के लिए वंचित रह जायेगा । इस संसार में ही उस शरीर और जीव की दुर्गति हो जाएगी । अत: हमारे आर्ष ग्रंथ एवं आत्मज्ञानी (ब्रह्मज्ञानी) महात्मा एवं सद्गुरु स्वरूप आप्तजन कहते हैं - 

उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत । कथोपनिषद 1/3/4 

अर्थात अज्ञान के विविध मोहमय और मायामय भयंकर आवरणों से ग्रस्त हे मानव ! उठो, जागृत हो, श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानियों की शरण ग्रहण कर अखंड ब्रह्मज्ञान प्राप्त करो और अपनी आत्मा को जागृत करो । महामति श्री प्राणनाथ जी कलश हिंदुस्तानी प्रकरण 24 / 19 कहते हैं-

मोह अज्ञान भरमना, करम काल और सुंन ।
ए नाम सारे नींद के, निराकार निरगुन ।।

मोह, अज्ञान, भ्रम, कर्म, काल, शून्य, निराकार, निर्गुण आदि सभी नाम उसी मोह-निद्रा के हैं ।

मन, चित, बुद्धि, अहंकार का विकार और विस्तार शब्द- ज्ञान, संसार के लोगों के वचन, शून्य और निराकार तक ही पहुँचते हैं। अर्थात कोई ज्ञानी यदि उससे आगे का वर्णन, अटकल, अनुमान या विविध तर्कों द्वारा करता भी है, तो वह पुनः इसी शून्यमंडल में आ गिरता है- 

यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह । (तैत्तिरीयोपनिषद् 3/1)

परम पुरुष परब्रह्म परमात्मा का स्वरूप आनंदमय है । वहां तक मन, संसार की वाणी आदि समस्त इंद्रियों के समुदाय रूप मनोमय शरीर की पहुंच नहीं है। परब्रह्म के परम आनंदमय एवं दिव्यतम स्वरूप की आत्मानुभूति कर लेने वाला विद्वान ब्रह्मसृष्टि कभी भयभीत नहीं होता ।


हुकमे वेद कतेब में, लिखे लाखों निसान ।
सो मिले कौल देखे तुम, हाए हाए अजूं न आवे ईमान || (सिनगार 29/98)

 श्रीमद्भगवत गीता 2/52 में मोह के विषय में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं-

यदा ते मोह कलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ।।

हे अर्जुन ! जिस समय तेरी बुद्धि मोह रूप दलदल को भलीभांति पार कर जाएगी, उस समय तू सुने हुए और सुनने में आने वाले इस लोक (संसार) और परलोक (स्वर्ग) संबंधी सभी भोगों से वैराग्य को प्राप्त हो जाएगा ।

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत ।
स्थितोऽस्मि गतसंदेह करिश्ये वचनं तव ।। (गीता 18/73)

हे अच्युत श्री कृष्ण! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने स्मृति प्राप्त कर ली है । अब मैं संशय रहित (निशंक) और स्थिर होकर आपकी आज्ञा का पालन करूंगा ।

यतो वा इमानी भूतानि जायन्ते ।
येन जातानि जीवन्ति यत्पयन्त्यभिसंविशन्ति, तद्विजिज्ञासस्व ।। तैत्तिरीयोपनिषद् 3/1

अक्षर ब्रह्म से ही ये समस्त पदार्थ (सृष्टि) उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जिसके आश्रय से वर्तमान रहते हैं और अंत में अर्थात प्रलय में जिसको प्राप्त होते हैं, जिन में लीन हो जाते हैं, उसी को जानने की इच्छा करो, वही ब्रह्म है ।

यो वै भूमा तत्सुखम् । नाल्पे सुखमस्ति । भूमैव सुख । भूमात्वेव विजिज्ञासितव्य । छांदोग्योपनिषद 7/2/1

वह (परमात्मा एवं परमधाम) विशालतम है, महानतम (परम) है, वही सुख रूप है । अल्प (लघु) में शाश्वत सुख नहीं रहता । निस्सन्देह महानतम (परम) ही सुख है। इसलिए महान को ही विशेष रूप से जानने की इच्छा करनी चाहिए । जो परम है, वही अमृत (शाश्चत, सनातन, नित्य, अखंड) है । जो लघु है, वह मर्त्य (क्षर) है, विनाशशील है।

असतो मा तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मा अमृतं गमय । बृहदारण्यक उपनिषद् 1/3/28

हे परमात्मा ! मुझे असत्य (मोह, भ्रम) से सत्य की ओर ले चलिए। अंधकार (असत्य) से प्रकाश (तारतम) की ओर ले चलिए । मुझे मृत्यु लोक (अपूर्ण जीवन) से अमृत (पूर्णता- अखंडता) की ओर ले चलिए ।

तारकं सर्व विषये सर्वथा विषयमक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् । योगदर्शन विभूति पाद सूत्र 54

यह (तारतम ज्ञान) संसार भाव (आसक्ति) को छुड़ाकर परम वैराग्य को उत्पन्न करके योगी की कैवल्य अवस्था को संपादन करने हेतु है इसलिए इसको तारक अर्थात मोहमय संसार सागर से उद्धार करने वाला कहा है इसके द्वारा योगी समस्त वस्तुओं को सब प्रकार से जान सकता है । इस कारण इसको अक्रमम् भी कहा करते हैं। यह ज्ञान की अंतिम एवं उच्चतम अवस्था है। इससे ऊँची कोई स्थिति नहीं है। अक्रमम् का यह भाव भी समझना चाहिए कि यह क्रम से रहित है, अर्थात दूसरे ज्ञानों की भाँति परिवर्तनशील एवं अनुमान पर आधारित नहीं है। परमधाम की श्री इंद्रावती सखी रास ग्रंथ के अंतर्गत मोहजल (मोह सागर-संसार) विषयक प्रथम प्रकरण की प्रथम चौपाई में कहती हैं- 

हवे पेहेले मोह जलनी कहूँ बात, तेता दुख रूपी दिन रात ।

अर्थात अब मैं सर्वप्रथम सृष्टि रचना के मूल तत्व मोहजल का रहस्य बताती हूँ । यह मोह जल संसार की सृष्टि में दिन-रात, दुख, तनाव, आसक्ति, वेदना, रोग, भोग, काम, क्रोध, लोभ, मद, मत्सर का ही स्वरूप है । संक्षेप में, मोह, निद्रा घोर अज्ञानता का स्वरूप है ।

जुगते करीने जगावी, लई तारतमे लगावी । रास 1/15

सद्गुरु श्री निजानंदाचार्य धनी श्री देवचंद्र ने युक्ति से मेरी आत्मा (श्री इंद्रावती जी की आत्मा) को जगाया। मुझे तारतम देकर जागृत ज्ञान से जोड़ दिया ।

मायानो जे पामसे पार, तारतम करसे तेह विचार ।
ब्रह्मांड माहें तारतम सार, एणें टाल्यो सहूनो अंधकार ।। रास 1/41

तारतम ज्ञान (जागृत ज्ञान) से ही माया, मोह, अज्ञान और भ्रम दूर होगा, माया से पार पाया जा सकेगा और तारतम ज्ञान का विचार किया जा सकेगा । यह तारतम ज्ञान ही इस मायामय संसार में परम मोक्ष एवं परमानंद प्रदान करने का उत्तम साधन एवं परम आधार है । तारतम ज्ञान ने ही अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाया है ।

मोह उपज्यो इतथे, जो सुन निराकार । पल मींच ब्रह्मांड किया, कारज कारण सार ।। कलस हिंदी 24/18

अक्षरधाम में अक्षर ब्रह्म को अक्षरातीत धामधनी की विविध दिव्यतम विलास लीलाओं को देखने की इच्छा से मोह उत्पन्न हुआ। इसी मोहनिद्रा से कार्य, कारण एवं परिणाम को प्राप्त कर एक पल मात्र में मोह-माया भ्रमात्मक एवं क्षरात्मक साकार-निराकार ब्रह्मांडों की रचना की गई ।

मोह सो जो ना कछु, इनसे असंग बेहद कलस हि. 24/40

मोह निद्रा उसे कहते हैं जिसका कोई अस्तित्व नहीं है और मोह का बेहद भूमि से कोई संबंध भी नहीं है

जहां नहीं तहां है कहे, ये दोऊ मोह के वचन । कलश हि. 24/45 

श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन से श्रीकृष्ण कहते हैं - 

नासतो विद्यते भावो ना भावो विद्यते सतः । 
उभयोरपि दृष्टोऽन्यस्त्वनयो तत्वदर्शीभिः ।। गीता 2/16

अर्थात असत्य वस्तु (जिसका अस्तित्व ही नहीं है) की तो सत्ता नहीं है और सत्य का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों (सत असत) को - ही तत्व तत्व ज्ञानी (विवेकी) पुरुषों द्वारा देखा गया है ।

वास्तव में देखा जाए, तो संसार और पांचभौतिक, त्रिगुणात्मक (गुण अंग इंद्रियों से युक्त) यह संसारी (मायावी) शरीर शाश्वत नहीं है, एक दिन नष्ट हो जाएगा। यह संसार और शरीर वास्तव में व्यावहारिक, कालाधीन, भ्रमात्मक, झूठा और स्वप्नवत है। यह जानते हुए मोह, माया, अज्ञान एवं भ्रम से ग्रसित संसार सागर में आकण्ठ डूबे हुए लोग शरीर को अखंड मानते हैं ।

श्री इंद्रावती सखी कहती हैं कि मोह- निद्रा और माया से ही यह शरीर तथा विराट संसार की रचना हुई है ।

मोह मिने हुआ आकार ।
जो साथ को भरम का घेन । कलश हिंदुस्तानी 24/39, 46

सुंदरसाथ को मोह निद्रा के भ्रम का नशा चढ़ गया था।

अब जागो जगाऊं जुगत सों, छोड़ो नींद विकार । 
पेहेचान कराऊं पिया सों, सुफल करूं अवतार ।। कलस हिंदुस्तानी, 22/19

श्री इंद्रावती सखी सुंदरसाथ को सत्य मार्ग और मूल मुकाम (मूल घर) परमधाम की बात समझाते हुए कहती है कि मैं तुम्हें इस संसार की वास्तविक स्थिति को विभिन्न प्रकार से समझा कर आत्मा की पहचान करा कर जागृत कर रही हूँ कि तुम इस भयंकर माया, मोह और अहंकार को छोड़ो। मैं तुम्हें अपने धाम धनी श्री कृष्ण जी अर्थात श्री प्राणनाथ जी की पहचान करा कर इस मनुष्य जन्म को सफल करती हूँ। मैं तुमको अखंड तारतम ज्ञान रूपी सच्चे और अखंड सूर्य के दिव्यतम शाश्वत प्रकाश से तुम्हारे मन के मोह और भ्रम रूप पर्दा दूर करती हूँ।

अब जाग देखो सुख जागनी, ए सुख सुहागिन जोग ।
तीन लीला चौथी घर की, इन चारों का यामें भोग || कलस हिंदुस्तानी 23/01

श्री इन्द्रावती सखी सुंदरसाथ को प्रबोधित कर कह रही है कि अखंड एवं परम सार रूप श्री तारतम ज्ञान से अपने श्यामा-श्याम के साथ मूल संबंध को पहचान कर इस मोह-मायामय संसार से जागृत हो जाओ इस संसार में ही जागनी रासलीला के सुखानंद का प्रत्यक्ष अनुभव करो, क्योंकि यह जागनी लीला सुहागिन अंगनाओं के देखने योग्य है। अखंड ब्रज, , अखंड रास, अखंड जागनी रास और अखंड परमधाम सहित चारों लीलाओं का अनुभव इस जागनी के ब्रह्मांड रूपी संसार में ही होगा । 

कहा न जाए सुख जागनी । कलस हिंदुस्तानी 24/2

जागनी लीला के परम आनंद का वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि सच्चिदानंद धनी श्री कृष्ण जी धाम के मूल संबंधी श्री प्राणनाथ प्यारे के सुखों का अनुभव इस जागनी की लीला में ही होता है।

श्री इंद्रावती सखी जागनी लीला का परम महत्व बताते हुए कहती हैं- 'मैं तुम्हारे मन के सभी विकारों को दूर कर प्रेमानंद के साथ जागनी लीला का अनुभव करा कर इस संसार में आने के • शुभ अवसर को सार्थक कर दूँगी, अर्थात 'सुफल करूँ अवतार' ।

अब हम इस जागनी रास के ब्रह्मांड में प्रेमानंद का अनुभव कराते हुए एक साथ श्री धाम धनी की परम आज्ञा एवं परम कृपा से एक क्षण में जागृत होंगे। श्री इंद्रावती सखी की इच्छा है कि अब वे हमें इस मोहजल संसार में ही श्री तारतम ज्ञान एवं अनन्य परा प्रेमलक्षणा भक्ति से इस प्रकार पार लगाएँगी कि किसी भी सुन्दरसाथ पर माया मोह के विकारों का असर न होगा ।

धाम धनी ने अकेली मुझे जगाया है किंतु मैं अब सामूहिक रूप से जागनी करूं जिससे पीड़ा, वेदना और दुखरूप इस झूठे संसार को सुखदायक बनाकर सबको अखंड आनंद प्रदान कर दूं ।

श्री तारतम सागर, तारतम दर्शन इस संसार से परे मूल परमधाम का मार्ग भी बताता है और मूल मुकाम भी बतलाता है। इसलिए तारतम ज्ञान अनुमानजन्य नहीं है। आवेश द्वारा जागनी करना धनी जी के हाथ में है और तारतम ज्ञान तो हमारा बल (ताकत-शक्ति) है। इसके द्वारा जागनी और परमधाम के द्वार खुल जाते हैं । आवेश के स्वरूप श्री कृष्ण जी कहते हैं कि मैं ही सुखानंद देता हूँ, मैं ही सुख लेता हूँ और मैं ही सुंदरसाथ को प्रेमपूर्वक जागृत करता हूँ, क्योंकि जागनी के कार्य करने की शोभा मैंने ही अपने हाथों श्री इंद्रावती स्वरूप श्री जी (महामति प्राणनाथ) को प्रदान की है।

उत्तम भी कहूँ इनमें, जहां तारतम को विस्तार ।। कलस 23/102

जहाँ यह जागनी रासलीला श्री तारतम ज्ञान के पूर्ण विस्तार को लेकर अखण्ड हुई है, वह परम पवित्र परम पूज्य स्थान मुक्तिपीठ श्री 5 पद्मावती पुरी, पन्ना, मध्य प्रदेश है ।

बुध तारतम लेय के, पसरसी वैराट के अंग ।

अक्षर हिरदे या बिध, अधिक चढ़सी रंग ।।

कलस हिंदुस्तानी 23/105

अक्षर ब्रह्म की बुद्धि तारतम ज्ञान को

लेकर जब संसार के लोगों के दिलों में विस्तृत

होगी, तब अक्षर के हृदय में इस जागनी लीला

का अधिक रंग चढ़ेगा ।

क्षर-अक्षर से परे अखंड परमधाम ब्रह्मप्रियाओं की परमानंद की दिव्यतम लीलाओं की सच्ची कथा अगम, अकथ, अलख और अद्भुत है जिसको इंद्रावती स्वरूप श्री महामति प्राणनाथ जी प्रकट कर रहे हैं। जो बात कभी सुनी नहीं है, उसे सुनकर जीवात्मा मोह-माया के भ्रम में पड़कर उलझ जाती है, लेकिन श्री धाम धनी की परम कृपा से आत्मा तर जाती है और चारों अखंड ब्रह्म लीलाओं का रसपान कर धन्य- धन्य हो जाती है ।

ए तीन ब्रह्मांड हुए जो अब, ऐसे हुए ना होसी कब ।
इन तीनों में ब्रह्म लीला भई, ब्रज रास और जागनी कही ।। प्रकाश हिंदुस्तानी 37 /114

इतहीं बैठे घर जागे धाम, पूरन मनोरथ हुए सब काम ।
धनी महामत हंस ताली दे, साथ उठा हंसता सुख ले | प्रकाश हिंदुस्तानी 37 / 118

अंततः इस संसार में ही अपने अखंड परमधाम की प्रेमानुभूति कर सुंदरसाथ परमधाम में अपनी परातम में जागृत हुए और सबके मनोरथ पूर्ण हुए । 

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