धर्मो रक्षति रक्षित :

धर्मो रक्षति रक्षित :


दक्षिण भारत की एक घटना है । एक दिन एक व्यक्ति अचानक जोर-जोर से रोते हुए कहने लगा कि उसकी लड़की ने घर से भागकर किसी दूसरे धर्म को मानने वाले लड़के से शादी कर ली है, और वह उसके परिवार के साथ ही रहने लगी है। कृपया मेरी बेटी को उन लोगों से बचाइये

उसकी बात सुनकर कुछ लोग एक समझदार व्यक्ति को साथ लेकर लड़की से बात करने लड़के के घर गए । लड़की उस परिवार के घर में थी। लड़की को देखकर वे आश्चर्यचकित रह गये वह संपूर्णतः उनके समाज की औरतों की वेशभूषा में थी। उन्होंने पूछा, बेटी तुमने ऐसा क्यों किया, तुम्हारे मां बाप परेशान हैं ।

लड़की ने कहा कि वह उस लड़के के साथ पिछले एक साल से प्यार कर रही थी इस दरमियान उस लड़के ने उसके सारे नियम समझाये, उसके धर्म की करामातें , बताई, उसकी मां ने यानी अब उस लड़की की सास ने उसे उनके धर्मग्रंथ को सिखाया, घर में सब साथ मिलजुलकर प्रार्थना करने, मिलकर खाने-पीने का रिवाज सिखाया, एक दूसरे के लिए जान तक कुर्बान करने का जज़्बा सिखाया ।

वह लड़की बोली कि मैं 23 साल की हो गई हूँ । मेरे माता पिता ने मुझे कभी भी शास्त्रों का ज्ञान नहीं बताया, प्रार्थना करना, नियमानुसार मंदिर जाना आदि कोई बात नहीं सिखाई । मैंने तो इस लड़के के साथ आने के बाद ही सच्ची इबादत, उसकी रहमत पाना सीखी। पापा को तो बस पैसे कमाने से फुरसत ही नहीं थी, उन्हें पूजा- प्रार्थना करते मैंनें कभी देखा नहीं, माँ अपनी साड़ी ब्लाउज की मैचिंग बनवाने, टेलर के चक्कर काटने, मेकअप बगैरह में ही खुद भी और मुझे भी व्यस्त रखती थी। पिताजी और माँ घर में अक्सर लड़ते-झगड़ते रहते थे । खासकर जब दादा-दादी आते तो माँ घर में युद्ध छेड़ देती थी। मिजुलकर सम्मान से एक परिवार की तरह कभी किसी को शान्तिपूर्वक खुशी-खुशी रहते देखा नहीं, कभी ऐसे अच्छे अनुभव नहीं मिले। लेकिन अब यहाँ मुझे वो सब कुछ मिला और इसीलिए इनके यहाँ आने से मैं खुश हूँ । अब बताइए, क्या मैं गलत हूँ ?

लड़की की सारी बात सही थी यह सब सुनकर वे कुछ नहीं बोल सके और वापस लौट आये। वापस आकर उन्होंने लड़की के माता-पिता से यही कहा कि जैसा बोओगे, वैसा ही पाओगे

अफसोस की बात यह है कि 80 प्रतिशत हिंदू परिवार में अपने को धर्म की शिक्षा और संस्कार नहीं सिखाया जाता है । माता पिता कपड़ों के सिलेक्शन, मैचिंग नहीं, अपने बच्चों को संस्कृति, आचार- व्यवहार सिखाएं; सुख भोगना नहीं, रीति- रिवाज, शिष्टाचार बचपन से ही सिखाएँ । आप बच्चों के आदर्श बनें। धर्मो रक्षति रक्षितः अर्थात् धर्म उनकी रक्षा करता हैं जो धर्म की रक्षा - पालन करते हैं ।

अतः आप सचेत रहिए । अगर आप अपने बच्चों को धर्म-ज्ञान एवं शाश्वत संस्कार नहीं सिखाएंगे, तो उन्हें बाहर वाले अपनाएंगे आज इसी प्रकार की परिस्थिति अपने धर्म के संदर्भ में भी देखने को मिल रही है । आज देखा जा रहा है कि अपने धर्म में भी आपसी झगड़े, मनमुटाव, तर्क वितर्क और धर्म के सिद्धांतों पर वाद-विवाद कर हम अपने समाज, परिवार और बच्चों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं ।

पुराने जमाने में धर्म प्रचार के सुलभ साधन नहीं थे । इंटरनेट, टेलीविजन, टेलीफोन, मोबाइल जैसे किसी प्रकार के साधन नहीं थे । फिर भी धर्म का प्रचार व्यापक रूप से होता था । श्री जी ने पैदल चलकर पूरे भारतवर्ष ही नहीं विदेशों में भी अपने धर्म का डंका बजाया । लेकिन आज इतने साधन उपलब्ध होने पर श्रीजी की वाणी 'पसरसी चौदे भवन' को सार्थक करने की बजाय हम आपस में ही छोटी-छोटी बातों में उलझ कर धर्म के सिद्धांतों को एक तरफ कर अपने बच्चों में, परिवार में और समाज में नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं।

सुंदरसाथ जी आप सभी से विनम्र अनुरोध है कि धर्म के सच्चे प्रचारक बनकर श्री प्राणनाथ जी की वाणी को सही रूप से समझ कर आपसी तर्क-वितर्क, कुतर्क न करते हुए प्रेम से वाणी का अध्ययन करें, मनन करें और अपने परिवार सहित समस्त सुंदरसाथ में प्रेम बरसाकर ईर्ष्या-द्वेष और अहंकार के कारण उत्पन्न आपसी मनमुटाव बंद करें। यदि हम ओछी और घटिया सोच 1 रखकर धर्म प्रचारक बनने का ढोंग करते हैं, तो यह बहुत ही घातक है और इससे श्री प्राणनाथ जी की वाणी का प्रचार कदापि में नहीं हो सकता। यदि इसी प्रकार भविष्य में र भी चलता रहा, दूसरे लोग तो कया तो हमारे ने बच्चे भी दूसरे धर्मों का अवलम्बन करेंगे व आज गुजरात, पंजाब, उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर देखा जा रहा है कि सुंदरसाथ लोगों के झांसे में आकर अपना धर्म बदल रहे - हैं । निजानंद धर्म को छोड़ रहे हैं, क्योंकि वे - कहते हैं कि जब धर्म के ठेकेदार ही आपस में सिद्धान्त को लेकर उलझ रहे हैं, तो हमें क्या मार्गदर्शन करेंगे ।

इसलिए प्यारे सुंदरसाथ जी हम आपस में लड़ना बंद करें और वाणी सच्चे अर्थ को समझकर सभी वैमनस्यता और सभी प्रकार के तुच्छ स्वार्थों का परित्याग कर प्रेमपूर्वक आत्म-धर्म को अपनाते हुए साथ- साथ चल कर श्रीजी की वाणी का प्रचार करें।

लेखक : श्री पारसमणि शास्त्री मानसेवी संपादक, मुक्तिपीठ

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