परना परमधाम : एक परिचय



केन नदी के निकट विंध्याचल की सुरम्य घाटियों से घिरा हुआ एक भू-भाग है ब्रह्ममुनियों के पग पड़ने के कारण यह स्थान पद्मावती पुरी के नाम से विख्यात हुआ। इसी प्रकार पौराणिक कथा है कि शिव-पार्वती एक बार भ्रमण करते हुए यहाँ से गुजरे, तब शिवजी ने इस भूमि को नमन किया । पार्वती जी ने इस भूमि की महत्ता शिवजी से जाननी चाही । शिवजी ने कहा, 'कलियुग में यहाँ इन्द्रावती देवी ब्रह्म रूप में आयेंगी । उनके साथ कई ब्रह्ममुनि यहाँ आकर निवास करेंगे, जिनकी भक्ति, साधना और तप के प्रभाव से यह पावन भूमि जन-जन के लिए मुक्तिद्वार के रूप में प्रतिष्ठित होगी।' इस प्रकार इस पावन भूमि के महत्व को जानते हुए महर्षि बृहस्पति ने बृहस्पति कुण्ड, सुतीक्ष्ण मुनि ने सारंग, अगस्त्य ऋषि ने सिद्धनाथ, माण्डूक्य ऋषि ने झोर आदि आश्रम स्थापित कर यहाँ पूर्णब्रह्म परमात्मा का स्मरण किया ।

कालांतर में इस अंचल के प्रतापी वीर छत्रसाल ने गोंड़ राजाओं को परास्त कर इस भू-भाग को अपने बुंदेलखण्ड राज्य में सम्मिलित किया । किलकिला नदी के किनारे पन्ना नाम से जो बस्ती (पुराना पन्ना) थी, उसी नाम से यह नगर पन्ना नगर कहलाया ।

किलकिला नदी के किनारे सन् 1683 में आम्रकुंजों के बीच महामति श्री प्राणनाथ ने अपना डेरा बनाया । कहते हैं, उस समय किलकिला नदी का जल विषयुक्त था गाँव वाले इस जल का कोई उपयोग न कर पाते तब महामति श्री प्राणनाथ जी ने अपने तप-बल से चरणामृत द्वारा इस जल का विष-प्रभाव दूर किया इस को संतों इस गाया है-

विष की नदिया अमृत कीन्ही, सुख सबन पहुंचायो ।
आली मोहे प्राणनाथ मन भायो....

किलकिला नदी के ही किनारे एक सुरक्षित स्थान पर छत्रसाल ने अपने परिवार के निवास हेतु एक गढ़ी (छोटा महल) बनवाई थी। निकट ही एक सुंदर चौपड़ा था । छत्रसाल अपने सद्गुरु महामति श्री प्राणनाथ को किलकिला नदी के आम्रकुंज घाट से पालकी में कंधा लगाकर ससम्मान अपनी गढ़ी के निकट चौपड़ा नामक स्थान पर लाये । कालांतर में यहाँ जो मंदिर बना वह चौपड़ा मंदिर के नाम से प्रसिद्ध हुआ । यह वही दिव्य स्थान 1 है जहाँ वीर छत्रसाल और उनकी धर्मपत्नी ने क्रमशः अपनी पाग और आँचल पाँवड़े के रूप में बिछाकर महामति प्राणनाथ की अगवानी की यहीं छत्रसाल दंपत्ति ने अपने सद्गुरु में साक्षात् पूर्णब्रह्म परमात्मा के दर्शन किये । छत्रसाल की आत्मा हर्षित होकर गा उठी-

पूरन ब्रह्म ब्रह्म से न्यारे,.. सो घर आये हमारे । 

किलकिला नदी के किनारे सुंदर पर्वत मालाएँ, कलकल करते हुए झरने, कुण्ड, जल प्रपात और वनाच्छादित भूमि देखकर महामति श्री प्राणनाथ का यायावर मन यहीं बसने के लिए राजी हुआ । गुजरात से चलकर हजारों किलोमीटर की लंबी यात्रा के बाद महामति ने स्थायी निवास के लिए यही जगह चुनी। ब्रह्ममुनियों सहित अपने निवास के लिये भूमि स्वामित्व का एवं विश्व-जागनी-केन्द्र स्थापना का धर्मपताका सर्वप्रथम महामति श्री प्राणनाथ ने यहीं स्थापित किया । (यह झंडा आज भी खाले बाजार नामक स्थान में स्थापित है) यहाँ से पन्ना नामक भू-भाग परना परमधाम रूप में विकसित होना शुरू होता है । यहीं महामति श्री प्राणनाथ जी ने श्री पद्मावती पुरी की स्थापना की-

पद्मावती पुरी बसाई, पुनीत सुन्दर सुभग सुहाई ।
घर पर साथ सकल सुखदाई, परसपर आनंद हर बधाई ॥ (बीतक : श्री नवरंग स्वामी)

 पद्मावती पुरी छवि छाई, अति पावन पुरान मति गाई ।
जम्बू द्वीप पवित्र बखानो, तिनमें भरतखण्ड शुभ जानो ।। (मेहराज चरित्र : बख्शी हंसराज जी)

महामति प्राणनाथ जिस परमधाम में विश्वास करते हैं, जिसका नित्य साक्षात्कार करते हैं, यहाँ स्वलीलाद्वैत है। अर्थात वहाँ दो का भाव बिल्कुल नहीं है। सब जगह एकाकार है। इसलिए महामति श्री प्राणनाथ के निवास स्थान का नामकरण हुआ 'परना' । अर्थात यहाँ पराया कोई नहीं है, सब अपने हैं, एक दिली है।

इस पुण्य भूमि में रहते हुए महामति श्री प्राणनाथ के मुखारविंद से खुलासा, खिलवत, परिक्रमा, सागर, सिनगार, सिंधी, मारफत सागर नामक सात ग्रंथों का अवतरण हुआ परिक्रमा वह महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसमें पहली बार पूर्णब्रह्म परमात्मा के दिव्य धाम का वर्णन हुआ है। इसके पूर्व संसार के किसी भी ग्रंथ में ऐसा कोई भी वर्णन कहीं भी देखने को नहीं मिलता महामति श्री प्राणनाथ ऐसा ही दिव्य धाम धरती पर बसाना चाहते हैं, जिसका प्रतीक है ये परना-परमधाम इस दिव्य धाम के निर्माण के लिए भी एक झण्डे की स्थापना हुई, जो ज्ञान का झण्डा, धर्म का झण्डा कहलाता है। (यह झण्डा श्री प्राणनाथ मंदिर प्रांगण अर्थात् ब्रह्म चबूतरे के ऊपर दाहिनी ओर आज भी स्थापित है ।)

सन् 1683 में महामति श्री प्राणनाथ द्वारा वर्तमान पन्ना नगर के आदि निर्माण के रूप 'श्री बंगला जी मंदिर' की स्थापना हुई। समस्त साथियों ने अपने श्रमदान द्वारा इसे सभा भवन का रूप दिया। महामति श्री प्राणनाथ अपने 'सुन्दरसाथ को यहीं ब्रह्मवाणी का उपदेश प्रदान करते थे। यहां आठों याम भजन, कीर्तन और ब्रह्मवाणी की चर्चा हुआ करती थी महामति श्री प्राणनाथ जी यहीं निवास करते थे । उनका हर पल ब्रह्मचर्चा के लिए समर्पित था । इस स्थान के लिए कहा गया है - 


बंगला 'संसद गृह' प्रभु का, महामहिम गौरवशाली ।
होती भक्ति ज्ञान कथा नित, आठों याम पुण्यशाली ।।

महामति श्री प्राणनाथ जी के समय सन् 1688 में समस्त सुन्दरसाथ ने अपने श्रमदान द्वारा एक भव्य मंदिर का निर्माण किया जिसे 'श्री गुम्मट जी' कहते हैं। यह श्री प्राणनाथ जी का साधना-स्थल है। वे यहीं बैठकर ब्रह्म-चिंतन में लीन रहते थे जिसे उन्होंने 'चितवनी' कहा है। 'बिंद में सिंघ समाया रे साधो' बूँद में सागर समा गया, अर्थात् श्री मेहेराज ठाकुर में पूर्णब्रह्म का अवतरण हुआ और वे महामति प्राणनाथ हुये । इसी प्रकार 'बेसुमार ल्याये सुमार में' अर्थात् ब्रह्मधाम की अकथनीय एवं अनन्त बातें पहली बार यहीं, इसी भूमि पर शब्दों में कही गईं। महामति श्री प्राणनाथ जी के इस चितवनी स्थल को, जहाँ वे ब्रह्मवत् होकर विद्यमान हैं 'मुक्तिपीठ' कहा जाता है इस स्थान की महिमा के लिये कहा गया है-

'इन देहरी की सब चूमसी खाक, सिरदार मेहेरबान दिल पाक ।'

महामति श्री प्राणनाथ जब पन्ना आये, तब अपने साथ अपने सद्गुरु श्री निजानंद स्वामी धनी श्री देवचंद्र जी की गादी भी साथ लाए। वे नित्य प्रति उस गादी के माध्यम से अपने धनी, अपने प्रीतम, अपने सद्गुरु का स्मरण किया करते थे इस गादी की जहाँ स्थापना हुई वह दिव्य स्थान सद्गुरु श्री देवचंद्र जी का मंदिर कहलाता है देश विदेश में कई जगह प्रणामी मंदिर हैं परंतु निजानंद सद्गुरु श्री देवचंद्र जी का मंदिर सिर्फ पन्ना धाम में ही स्थापित है, इसलिए इस मंदिर का गहन आध्यात्मिक महत्व है। महामति प्राणनाथ तो अपने सद्गुरु के लिए बार-बार कहते हैं-

सो संग कैसे छोड़िए, जो सांधे हैं सतगुर ।
उड़ाए सबै अंतर, बताए दियो निज घर ।।

अपनी यात्राओं के दौरान महामति प्राणनाथ ने देश के विभिन्न राजाओं का धर्मरक्षा के लिए आह्वान किया। तत्कालीन बादशाह औरंगजेब के डर से कोई धर्मपथ पर आगे नहीं आ सका, तब छत्रसाल साहस और वीरता का परिचय देते हुये अधर्म के विरुद्ध लड़ने के लिये तैयार हुये - 

बात ने सुनी रे बुंदेले छत्रसाल ने आगे आए खड़ा ले तलवार ।

ऐसे समर्पित योद्धा पर महामति श्री प्राणनाथ की असीम कृपा हुई । विजयादशमी के दिन जिस स्थान पर महामति श्री प्राणनाथ ने छत्रसाल को तलवार भेंट कर विजय का आशीर्वाद दिया, वह ऐतिहासिक स्थल खेजड़ा मंदिर के रूप में प्रसिद्ध है। इसी स्थान पर छत्रसाल जी को महामति श्री प्राणनाथ ने हीरे का वरदान दिया था, जिसके लिये ये पंक्तियाँ प्रसिद्ध हैं-

त्यों ही प्राणनाथ प्रभु आए, दिल के कुल संदेह मिटाए ।
उन ऐसो कछु ज्ञान बखानो, अपनो करि जाते जग जानो ॥ 
करो राज छत्रसाल महीं को, रन में होय सदा जय टीको ।
यह महि तुम्हें दयी नूरानी, जहां प्रगटि हीरन की खानी ॥  (छत्रप्रकाश)

महामति श्री प्राणनाथ की अर्द्धांगिनी तेजकुँवर जी, जो श्यामा स्वरूपा हैं, उनकी स्मृति में सन् 1693 में एक मंदिर का निर्माण हुआ जो श्री बाईजूराज राधिका महारानी जी का मंदिर कहलाता है। इस परिक्षेत्र को राधिका जी की क्रीडास्थली बरसाने के रूप में याद किया जाता है। श्री गुम्मट जी एवं बंगला जी मंदिर जिस चबूतरे पर स्थापित हैं उसे 'ब्रह्म चबूतरा' कहते हैं एवं जागनी रास की पवित्र भूमि के रूप में भी उसे याद करते हैं। ब्रह्म चबूतरे की परिक्रमा में स्वामी लालदास जी, स्वामी मुकुंददास जी (नवरंग स्वामी) सुशीला महारानी (मझली रानी) एवं महाराजा मर्दन सिंह के स्मृति स्थल (गुमटियाँ) सुशोभित हैं, जहाँ प्रतिदिन महाप्रभु के थाल भोग के पश्चात् प्रसाद पहुंचाया जाता है। नीचे के परिक्रमा स्थल सहित दूर तक फैले क्षेत्र को ब्रजमण्डल के रूप में देखा जाता है

इस प्रकार महामति श्री प्राणनाथ एवं उनके साथ आए ब्रह्ममुनियों के आवास क्षेत्र से जुड़े संपूर्ण भू भाग को 'परना परमधाम' कहा जाता है । 

ब्रह्ममुनियों का देश बनाया, जहाँ ब्रह्म ने स्वयं महान ।
उसके एक-एक कण-कण पर, होते कोटि तीर्थ बलिदान ॥ 
जय पद्मावती धाम पुरातन, ब्रह्म धाम के दिव्य स्वरूप ।
सायर कवि क्या गा सकता है, तेरे गौरव गीत अनूप ॥

विंध्याचल की सुरम्य घाटियों से घिरा हुआ, नदियों, तालाबों और जलप्रपातों से ओत-प्रोत एवं घने जंगलों की हरीतिमा से सुसज्जित यह क्षेत्र भौगोलिक दृष्टि से तो अत्यंत मनभावन है ही इसके साथ महामति श्री प्राणनाथ एवं उनके साथ आए ब्रह्ममुनियों की अनवरत साधना, भक्ति और ज्ञानमयी चर्चा के कारण यहाँ का कण-कण एक अपूर्व ऊर्जा से आवेशित है।

सन् 1683 में महामति श्री प्राणनाथ पन्ना आए। उसी वर्ष छतरपुर के निकट बिजावर में कुछ प्रेमीजनों ने उन्हें अपने यहाँ आमंत्रित किया। बिजावर के निकट ही एक स्थान है, जटाशंकर, जो तपोस्थली है, इसलिए 1 निश्चित ही यहाँ के भक्तगण महामति श्री प्राणनाथ का सानिध्य चाहते थे। उनके प्रेमपूर्ण आमंत्रण पर महामति श्री प्राणनाथ पन्ना से कुछ साथियों सहित बिजावर गए वह कार्तिक पूर्णिमा का दिन था, जब बिजावर के सुन्दरसाथ ने श्री कृष्ण के रास रहस्य को जानने की जिज्ञासा महामति श्री प्राणनाथ के सामने प्रकट की। महामति श्री प्राणनाथ तो अपनी साधना की चरम स्थिति में स्वयं कृष्णवत् हो चुके थे, इसलिए उन्होंने विस्तार से वहाँ रासलीला के रहस्य को खोला एवं स्वयं समस्त साथियों सहित रास को जीवंत कर बिजावर के सुन्दरसाथ को आह्लादित कर दिया । आज भी बिजावर में वह मंचस्थल, जिसे रास का चबूतरा कहते हैं, सुरक्षित हैं । 

कीन्हीं अरज नारायण दासा, मोपै कृपा करो मैं दासा ।
आप बिजावर तब पगु धारे, मेटि त्रिताप दूर कलि टारे ॥ 
शरद रैनि पूरन मन भायो, मुकुट बांधि तित रास सुहायो ।
माहिं जागिनी रास सुहाई, सो स्वरूप खेल्यो इत आई ॥ (वृतांत मुक्तावली)

बिजावर से पन्ना लौटने के पश्चात महामति श्री प्राणनाथ से पन्ना के समस्त साथियों ने भी 'रास' के रहस्य को विस्तार से जानने की इच्छा प्रकट की अगले वर्ष कार्तिक पूर्णिमा को तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी, कहकर महामति श्री प्राणनाथ ने उन्हें सांत्वना दी। लोगों ने बेसब्री से साल भर प्रतीक्षा की। अगले वर्ष की कार्तिक पूर्णिमा को पन्ना में महामति श्री प्राणनाथ ने समस्त साथियों को अखंड महारास की अनुभूति कराई । तब से लगातार हर वर्ष कार्तिक की पूर्णिमा 'शरद पूर्णिमा' को पन्ना धाम में महारास का आयोजन होता आ रहा है। श्री कृष्ण रस और आनंद के परम स्रोत हैं। रस और आनंद की परिपूर्णता भी श्री कृष्ण में है। तमाम योग, ज्ञान, भक्ति, और साधना का परम लक्ष्य है शाश्वत रस और आनंद की प्राप्ति। अखण्ड रस एवं आनंद के प्रतीक एक मात्र कृष्ण हैं, इसलिए उन्हें अपने प्रीतम के रूप में प्रेमलक्षणा भक्ति द्वारा आत्मसात करना ही महामति श्री प्राणनाथ का धर्म है

महामति अपनी लंबी यात्राओं के दौरान विभिन्न शहरों और गाँवों में गये। कई पुरियों और तीर्थस्थलों में रूके। परंतु उनके द्वारा प्रेमलक्षणा भक्ति के चरम शिखर 'रास' का व्यावहारिक पक्ष पन्ना में ही स्थापित हुआ। यहीं कृष्ण स्वरूप महामति श्री प्राणनाथ ने रास को रूपायित कर आनंद की शाश्वत स्थिति से समस्त साथियों को परिचित कराया। इस प्रकार भक्ति, प्रेम और रस की त्रिवेणी को आनंद के महासागर में समाते हुए लोगों ने यहीं देखा, यह परम सौभाग्य पन्ना को महातीर्थ होने का गौरव प्रदान करता है

परना धाम में मनाये जाने वाले त्यौहारों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व 'शरद पूर्णिमा' है, जिसकी शुरुआत स्वयं महामति श्री प्राणनाथ ने यहाँ से की थी। 'रास' ही महासागर है, इस पर जितना सोचो, समझो और बोलो बहुत कम है इसकी महिमा अव्याख्य है। प्रतिवर्ष पन्ना धाम में शरदपूर्णिमा पर रासोत्सव का महाआयोजन होता है, जिसमें देश विदेश से लाखों लोग आते हैं और रास के आनंद को अनुभूत करते हैं।



महामति श्री प्राणनाथ ज्ञान के अवतार हैं। उन्हें विजयाभिनंद बुद्धनिष्कलंक कहते हैं। उनकी समस्त वाणी का प्रथम संकलन और संपादन परनाधाम में ही हुआ । परना आने के पूर्व महामति की वाणी अलग-अलग खण्डों में विभिन्न साथियों के पास उपलब्ध थी ब्रह्ममुनि श्री केशवदास ने यहीं सर्वप्रथम महामति श्री प्राणनाथ की समस्त वाणी को संकलित कर एक ग्रंथ का रूप प्रदान किया। इस ग्रंथ को संतों ने महामति श्री प्राणनाथ का वाङ्मय स्वरूप कहा है । इस प्रकार सर्वप्रथम संकलित संपादित महामति की ब्रह्मवाणी, जिसे कुलजम स्वरूप, तारतम सागर और 'स्वसंवेद' के रूप में जाना जाता है

पश्ना-परमधाम की जो सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है, वह यह है कि यहीं सर्वप्रथम परमधाम द्वार के सबके लिये खुले । महामति ने परमात्मा के दिव्य धाम का वर्णन परिक्रमा नामक किताब में यहीं किया। इसके अलावा छः और महत्वपूर्ण किताबें पन्ना धाम में ही महामति श्री प्राणनाथ के मुखारबिंद से प्रस्फुटित हुईं ।

महामति श्री प्राणनाथ का प्रामाणिक जीवनवृत्त श्री लालदास जी ने पन्ना धाम में ही लिखना प्रारंभ किया और यहीं यह महत्वपूर्ण कृति पूर्ण हुई इसे बीतक के रूप में जाना जाता है। कालांतर में इसी कृति के आधार पर पन्ना में अन्य कवियों ने भी महामति के जीवनवृत्त की रचना की, जिसमें ब्रजभूषण, सनेह सखी और बख्सी हंसराज द्वारा रचित बीतक वृत्तांत महत्वपूर्ण हैं

कालान्तर में महामति श्री प्राणनाथ दर्शन से प्रेरित पन्ना में कवियों की एक पूरी परंपरा दिखाई देती है। नवरंग स्वामी महामति श्री प्राणनाथ के साथ रहे। वे वेद और हिन्दू शास्त्रों के उद्भट विद्वान थे। कहते हैं कि उन्होंने 36000 पदों की रचना की। परंतु नवरंग वाणी में उनके 17205 पद उपलब्ध हैं। उन्होंने अधिकांश रचनायें पन्ना धाम में ही लिखीं। प्रणामी काव्य परंपरा में एक और महत्वपूर्ण नाम है, कवि मस्ताने का । यहाँ के जन- जीवन में कवि जीवन मस्तानें के पद अत्यंत लोकप्रिय हैं । वे स्पष्ट कहते हैं- बहुत

परना परमधाम देख, इश्क में आराम देख | करके प्रणाम देख, सकल दुःख भाजे हैं ॥ कहते हैं मस्तान, जिसे लागी इश्क तान । रूहें देखिए दीदार, श्री प्राणनाथ जी परना में विराजे हैं ।।

इस प्रकार प्रणामी काव्य परंपरा में कई महत्वपूर्ण कवि हुए जुगलदास, गोपालदास, अर्जुनसिंह, मुरलीधर, गुलाबदास, कृष्णदास जिनमें के नाम बहुत प्रसिद्ध हैं। महामति श्री प्राणनाथ के अनन्य शिष्य छत्रसाल आदि स्वयं एक कुशल कवि थे महामति प्राणनाथ मिलन के पूर्व छत्रसाल ने विभिन्न देवी-देवताओं की लीलाओं पर कई छंद लिखे । महामति से मिलने के पश्चात आपकी काव्य धारा में एक नया मोड़ आया। अब वे कृष्ण भक्ति से ओतप्रोत अद्भुत पदों की रचना करने लगे। एक बानगी देखिए-

छत्रसाल मीत मित्रता के तुम ब्रजराज । 
हमहूं कलिंदजा के कूल पै पुकारे हैं । 
तुम गिरिधारी हम कृष्ण व्रत धारी ।
तुम दनुज प्रहारे हम धवन प्रहारे हैं ॥ 

छत्रसाल के पन्ना दरबार में कवियों और कलाकारों को भरपूर सम्मान मिलता था महाकवि भूषण की पालकी में कंधा लगाकर महाराजा छत्रसाल ने साहित्य के प्रति जो सम्मान व्यक्त किया, वैसा उदाहरण इतिहास में अन्यत्र नहीं मिलता । छत्रसाल कहते थे,

कीरत के बिरवा है कवि, इन्हें कभूं मुरझान न दीजे । 

पन्ना धाम में अखण्ड ज्ञान की मशाल देदीप्यमान है, इसके कई उदाहरण समय-समय पर देखने को मिलते हैं । महामति श्री प्राणनाथ के ज्ञान में कुरान और पुराण का समन्वय छत्रसाल के परिवार में कई लोगों को समझ में नहीं आया महामति श्री प्राणनाथ कहते थे, 'सोई खुदा, सोई ब्रह्म' यह बात पन्ना राज्य में बहुत लोगों को गले न उतरती थी । तब बलदीवान को कहकर महोबा के प्रसिद्ध काजी अब्दुल रसूल को चर्चा के लिए पन्ना बुलवाया गया। महामति श्री प्राणनाथ और काजी अब्दुल रसूल के बीच बड़ी सारगर्भित बात हुई। यह चर्चा पन्ना राज्य में सैकड़ों लोगों ने सुनी। अंत में काजी अब्दुल रसूल ने कुरान को सर पर रखकर कसम खाते हुए, सोई खुदा सोई ब्रह्म वाली बात मानी और महामति श्री प्राणनाथ को हादी- इमाम के रूप में स्वीकार किया ।

आया काजी महोबे का नाम अब्दुल रसूल ।
तिन सेती चर्चा भई, कुरान की मकबूल ॥
तब काजी कदमों लगा, किया सेजदा हक ।
हम तेहकीक पेहेचानिया, ए बात बड़ी बुजरक ॥ (बीतक)

पन्ना राज्य के शंकालु लोगों ने शास्त्र पक्ष पर भी बातचीत करने के लिए उस समय के शास्त्रज्ञ पंडित सुंदर, बल्लभ एवं बद्रीदास को चर्चा है पन्ना आमंत्रित किया। महामति ने इन पंडितों के सम्मुख भएका और पराप्रेमलक्षणा भक्ति की बात रखी। महामति श्री प्राणनाथ की वाणी से प्रभावित होकर शास्त्रज्ञ पंडित सुंदर, बल्लभ एवं बद्रीदास ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि श्री कृष्ण चरित्र के इन रहस्यों को भगवान के अतिरिक्त और कोई प्रगट नहीं कर सकता, इसलिए महामति श्री प्राणनाथ साक्षात भगवतस्वरूप हैं :-

तब बद्रीदास ने प्रश्न पूछे दिल दे कान ।
ए बात श्री कृष्ण की, होए न बिना भगवान ॥ (बीतक)

इस प्रकार पन्ना नगरी में भक्ति और ज्ञान की जो अविरल धारा महामति श्री प्राणनाथ से शुरू हुई थी वह आज भी अनवरत बह रही है। एक और महत्वपूर्ण गौरव इस धरती को प्राप्त है, महामति श्री प्राणनाथ का कर्मयोगी रूप पन्ना में ही प्रगट रूप में सबको दिखाई देता है। वे गीता के साकार रूप हैं, उनमें भक्तियोग, ज्ञान और कर्मयोग एक साथ घटित हुए हैं। उनके जीवन में कर्मयोग का अद्वितीय उदाहरण पन्ना में ही दिखाई देग है छत्रसाल के आग्रह पर आतताइयों के खिलाफ युद्ध में जाना महामति ने स्वीकार किया वे हाथी पर सवार होकर एक कुशल मार्गदर्शक की भांति बकायदे सैनिकों के साथ-साथ चलते हुए दिखाई देते हैं।

हमको बड़ी उम्मीद है, आप होओ असवार ।
चले आगे असवारी में, हम जलेब में हो हसियार ॥ 
सम्वत सत्रह सौ तैंतालिसे, असवारी करी जब ।
हस्ती पर चढ़ाए के, आगे सेना चलाई तब ॥ (बीतक)

ऐसा अद्भुत युद्ध इतिहास में कहीं कहीं मिलता है, जिसमें और शास्त्र का कौशल एक साथ दिखाई देता है। राठ, खड़ोत, जलालपुर को विजित करती हुई सेनाएं कालपी के समीप पहुंचती है। यहाँ मुल्ला, काजी और सैयद एक स्थान पर एकत्रित होकर महामति श्री प्राणनाथ से धर्मचर्चा करते हैं। महामति श्री प्राणनाथ उन्हें बार-बार समझाते हैं-रसूले मेहरबान का नाम धराया मुसलमान । सच्चा मुसलमान तो लोगों पर मेहरबान होता है। हम युद्ध नहीं चाहते। हम तुमसे प्राणी मात्र पर मेहरबानी की अपेक्षा करते हैं। हमारा संदेश प्रेम का संदेश है।

उपस्थित समस्त मुसलमान समुदाय ने महामति श्री प्राणनाथ के संदेश को समझा। कुरान की आयतों पर महामति श्री प्राणनाथ की व्याख्या को वहाँ उपस्थित सभी आलिम फाजिल लोगों ने माना और एक शांति संदेश, जिसमें महामति श्री प्राणनाथ को उन्होंने हक के रूप में जानने की बात कही औरंगजेब को भिजवाया तथा औरंगजेब से आग्रह किया कि ये बेमतलब के झगड़े अब बंद होने चाहिए ।

ए हम तहकीक किया, खाविंद जमाने का ।
हम अपनी आंखों देखिया, जो कुरान हदीसों लिखा ।
सो पहुंचाया सरे तोरे को, कानों सुना सुलतान ।
सुनके सिर नीचा किया, छूटा नहीं गुमान ॥ (बीतक)

महामति श्री प्राणनाथ के लिए युद्ध क्षेत्र भी धर्मक्षेत्र है। वे सब जगह धर्म का ही कार्य कर रहे हैं। कहीं ज्ञान के साथ, कहीं भक्ति के रूप में तो कहीं संपूर्ण कर्मयोगी की तरह । इस प्रकार पन्ना में उनका यह स्वरूप देखकर लोग धन्य धन्य हो गये । उन्होंने बताया कि धार्मिक व्यक्ति कभी कमजोर नहीं होता, वह महान योद्धा भी होता है

इस प्रकार श्री पद्मावतीपुरी, परना और पन्ना धाम, जो चाहें सो कहें यह एक तपोभूमि है, साधना स्थली है । ज्ञान, भक्ति और कर्म की त्रिवेणी का संगम है यहाँ श्यामा स्वरूपा बाईजूराज (तेजकुंवरि) एवं ब्रह्म स्वरूप महामति श्री प्राणनाथ ने इसी स्थान से ब्रह्मसमाधि में प्रवेश किया। ब्रह्मयोग में सवा साल तक लीन रहने के पश्चात् महामति श्री प्राणनाथ लगभग एक वर्ष तक यहाँ लोगों को साक्षात दर्शन देते रहे, उनसे बातचीत करते रहे और उनकी शंकाएँ दूर करते रहे। वे एक अलौकिक देह के साथ यहाँ उपस्थित हैं । 

जब बारह सदी में पांच बरस भए, तब अन्तरध्यान भए ।
संवत सत्रह सौ इक्यावन, श्रावन बदी चौथ शुक्रवार ।
फेर सवा वर्ष पीछे दर्शन लीला भई, सो एक बरस लो रही । (श्री तारतम प्रणालिका)

एक बर्ष ही क्यों वे आज भी यहाँ सदेह उपस्थित हैं । देह वही नहीं होती, जिसे हम देख पाते हैं। दिव्य दृष्टि हो तो देह पार जो देह है, उसे भी देखा जा सकता है महामति श्री प्राणनाथ तो यहाँ पूर्णब्रह्म होकर आज भी विद्यमान हैं जरूरत है, दिव्य दृष्टि की, प्यास की, व्याकुलता और उत्कण्ठा की ।

यह मुक्तिपीठ है सारी यात्राएं यहाँ आकर पूरी होती हैं। यदि परमधाम आपकी मंजिल है, तो उसकी लीला यहीं है। परमधाम में प्रीतम की जैसी लीला है, उसी रूप में यहाँ के मंदिरों में सेवा है, पूजा है। विभिन्न पर्वों की संस्कृति है । शायद उसे देखकर, जानकर आपको कोई भूली हुई बात याद आ जाए। आपको अपना घर याद आ जाए। कबीर कहते हैं न, 'रहना नहीं देश विराना है' तो फिर अपना देश कौन सा है, कहाँ है अपना घर ?

महामति श्री प्राणनाथ ने परना को परमधाम का द्वार बताया है। यहीं बैठकर उन्होंने परमधाम की बातें की। हिन्दुओं को हिन्दू शास्त्रों से, मुस्लिम समुदाय को कुरान और हदीसों से उन्होंने यहीं सीख दी । छत्रसाल को कर्मयोग का पाठ उन्होंने यहीं पढ़ाया। परमात्मा के अखंड रास का जीवंत रूप उन्होंने यहाँ दिखाया। भक्तों ने भावविभोर होकर उनकी जीवनगाथा इसी भूमि पर बैठकर लिखी कवियों ने उनके गुणगान गाते हुए यहाँ के कण- 1 कम को आवेशित कर दिया तभी तो 'दुष्यंत' ने इस भूमि के लिए कहा-

प्रभु की परम विहार भूमि के, तुम्हें कोटि परनाम करूँ,
परम मुक्ति के दिव्य पीठ, मैं पुरी कहूँ या धाम कहूँ ?

प्रणाम धर्म परायण सुन्दरसाथ जी ! यह सम्पूर्ण लेख पं. श्री ब्रजवासीलाल दुबे जी की किताब "इन विध साथजी जागिये" - (परना परमधाम में सेवा-पूजा एवं पर्व-संस्कृति) से लिया गया है । हम उनके बहुत आभारी है उनके द्वारा प्रणामी समाज में ज्ञान का प्रसार हो रहा है । आगे भी कुछ लेख उन्हीं की किताब से आप सबके समक्ष प्रस्तुत किए जायेंगे । प्रणाम 

Post a Comment

Previous Post Next Post

सेवा-पूजा