साधना


सद्गुरु श्री देवचंद्र जी ने अपने जीवन में परमात्मा की खोज के लिए कठिन साधनाएँ कीं। उस समय प्रचलित सभी साधना पद्धतियों में श्री देवचंद्र जी ने अपने आपको ढाला जप, तप, यम, नियम और प्राणायाम का अभ्यास किया विभिन्न गुरुओं, आचार्यों और विद्वानों का सत्संग किया सभी प्रकार की भक्ति को समझा, परंतु उन्हें कहीं शांति न मिली उनका मन बहुत बेचैन रहता था। मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ ? मुझे कहाँ जाना है? ये प्रश्न उन्हें निरंतर मथते रहते थे। फिर उन्होंने एकाग्र चित्त होकर पूरी निष्ठा के साथ लगातार चौदह वर्षों तक श्री कान्ह जी भट्ट से भागवत कथा का श्रवण किया। श्री देवचंद्र जी अपने संकल्प के अनुसार कथा श्रवण उपरांत अर्थात् आत्मा के आहार के पश्चात ही भोजन ग्रहण करते थे। कान्हजी भट्ट भी अपने प्रिय श्रोता का इंतजार करते रहते, उनके आने पर ही वे कथा प्रारंभ करते । इस प्रकार समग्र मन से देवचंद्र जी ने श्रीमद्भागवत कथा का श्रवण किया। परमात्मा के प्रति उनका समर्पण पूरा हो चुका था, साधना का फल पक चुका था। सिर्फ अपने प्रीतम से मिलन की एकमात्र आस उनमें शेष बची थी। एक दिन प्रीतम से मिलन हुआ। परमात्म स्वरूप के उन्हें साक्षात दर्शन हुए। आश्चर्यचकित हो उन्होंने पूछा, "आप कौन ?

‘“निजनाम श्री कृष्ण जी अनादि अक्षरातीत" उत्तर आया । उस स्वरूप ने आगे कहा, “अब मैं तुम्हारे अंतःकरण में विराजित हो रहा हूँ ।" तब से श्री देवचंद्र जी अपने ही भीतर परात्पर परब्रह्म श्री कृष्ण को अनुभव करने लगे। यहीं से वे सद्गुरु हुए।

श्री देवचंद्र जी को दरस दियो, जो है पूरण रूप ।
तारतम को तत्व कह्यो, हिरदे बैठ स्वरूप ॥

देवचंद्र जी के कई शिष्य हुए। उन्होंने विस्तारपूर्वक सबको समझाया - कि ब्रह्म का स्वरूप क्या है, 'सो तो अब जाहेर भए, सब विध वतन सहित' ब्रह्म का लीलामय स्वरूप, रसमय स्वरूप, आनंदमय स्वरूप पहली बार श्री देवचंद्र ने लोगों को बताया। इसके साथ ही उस स्वरूप के वतन की, देश की पहिचान भी उन्होंने भक्तों को सब प्रकार से कराई। उन्होंने अपने भीतर ही परमात्मा का निजबोध किया। उनके भीतर ही परम आनंद का स्रोत विद्यमान था । इसलिए उनके मार्ग को निजानंद संप्रदाय कहा गया।


कुछ समय पश्चात श्री मेहराज ठाकुर नामक बालक से उनकी भेंट हुई। उसे देखते ही उन्होंने पहिचान लिया कि यही एक मात्र मेरा उत्तराधिकारी है। श्री मेहराज ने विनय पूर्वक सद्गुरु श्री देवचंद्र के चरण-स्पर्श कर शिष्यत्व ग्रहण किया सद्गुरु ने उनके सिर पर हाथ रखकर उन्हें आशीर्वाद दिया। सद्गुरु का स्पर्श पाकर ही श्री मेहराज ठाकुर के भीतर एक बिजली सी कौंध गई। किसी शाश्वत जगत के संबंध धीरे-धीरे खुलने लगे । वेद- शास्त्रों के सारे गूढ रहस्य श्री देवचंद्र जी ने श्री मेहराज को समझाए और अंत में यह भी कहा कि कुरान भी अपना ही ग्रंथ है। उसमें भी परमात्मा के प्रेम का, उसकी करुणा का विस्तार से वर्णन है, तुम उसे अवश्य देखना । मेहराज ठाकुर का मन बेचैन रहता, उन्हें लगता कि ब्रह्म की जैसी अनुभूति उनके सद्गुरु को हो रही है, आनंद की जैसी वर्षा सद्गुरु के वचनों से हो रही है वैसी अनुभूति मुझे कब होगी? परमानंद को मैं कब आत्मसात करूँगा ?

सद्गुरु श्री देवचंद्र जी उनकी बेचैनी जानते थे एक दिन श्री मेहराज को उनका उत्तराधिकारी बनना था। सन् 1655 ई. में वह घड़ी आई, जब निजानंद सद्गुरु ने अपना नश्वर शरीर छोड़ा और पूर्णब्रह्म श्री कृष्ण की समस्त शक्तियों के साथ वे श्री मेहराज ठाकुर के अंतःकरण (इन्द्रावती) में समाहित हुए ।

फेर वचन साथ से कहे आहि, मोहे जानियो इंद्रावती मांहि ।
आज्ञा न कीजो इनकी लोप, हम इन मांहि बैठे होए गोप ।। (स्नेह सखी: बीतक)

इस प्रकार श्री मेहराज ठाकुर की आराधना पूरी हुई। वे ब्रह्म रूप होकर महामति श्री प्राणनाथ कहलाये ।

सद्गुरु श्री देवचंद्र जी ने निजनाम श्री कृष्ण के स्वरूप और सब प्रकार से उनके वतन की पहिचान महामति श्री प्राणनाथ को कराई थी। आगे पाँच छंदों का विस्तार देते हुए महामति श्री प्राणनाथ ने निजनाम मंत्र जिसे तारतम मंत्र भी कहते हैं, उसे पूरा किया। अब परा प्रेमलक्षणा भक्ति का संदेश लेकर महामति श्री प्राणनाथ अपने धर्म अभियान पर निकल पड़े। इस बीच उन्होंने सद्गुरु के कहे अनुसार कुरान का भी गहन अध्ययन किया और पाया, सचमुच कुरान में भी परा प्रेमलक्षणा भक्ति का ही विस्तार से वर्णन किया गया है। सिर्फ भाषांतर के कारण लोग कुरान के मर्म को नहीं समझ पाये वेद शास्त्रों में और कुरान में एक ही परमात्मा की महिमा गाई गई है। महामति श्री प्राणनाथ ने स्पष्ट कहा-

जो कछु कह्या कतेब ने, सोई कला वेद ।
दोऊ बंदे एक साहेब के, पर लड़त बिना पाए भेद ॥ 

श्री देवचंद्र जी ने अपने जीवन काल में कई तरह की साधनाएँ कीं शुरू में उन्होंने बालमुकुंद की सेवा करनी चाही। फिर बाबा हरिदास ने उन्हें बांके बिहारी का जामा, वस्त्र आदि प्रदान किया। वे उसकी पूजा करते रहे। फिर भागवत श्रवण के दौरान उन्होंने श्री कृष्ण की ब्रज और रास की लीलाओं का गहन चिंतन-मनन किया। फलस्वरूप श्री कृष्ण ने स्वयं उन्हें दर्शन दिए और वे उनके अंतःकरण में आकर बस गए। इस प्रकार गहन चिंतन, मनन और स्मरण से उन्होंने अपने आराध्य को पाया।

श्री मेहराज ठाकुर ने अपने सद्गुरु श्री देवचंद्र को ही ब्रह्म स्वरूप मानकर उनकी सेवा, पूजा और अर्चना की। वे उनके संग रहते हुए उनके अमृत वचन सुनते रहे। सद्गुरु का आशीर्वाद उन्हें सदा प्राप्त रहा। सद्गुरु की छत्रछाया में रहते हुए श्री मेहराज ने भी चिंतन, मनन और सद्गुरु के वचनों का श्रवण किया महामति श्री प्राणनाथ के अंदर परमधाम की पाँच शक्तियाँ प्रविष्ट हुई-

धनी का जोस आतम दुलहन, नूर हुकम बुध मूल वतन ।
ये पांचों मिल भई महामत, वेद कतेबों पोहोंची सरत ॥ 

महामति श्री प्राणनाथ के साथ जो साथी आए, उन्होंने अपना स्वामी, अपना धनी महामति श्री प्राणनाथ को माना। उनके जीवन काल में महामति श्री प्राणनाथ की सेवा ही उनकी पूजा और आराधना रही । परंतु परमात्म चिंतन, मनन और श्रवण की धारा यहाँ भी अविरल बहती रही । महामति श्री प्राणनाथ ने अपनी साधना पद्धति का नाम दिया 'चितवनी'। यह चिंतन, मनन और श्रवण का सम्मिलित रूप है। श्री देवचंद्र और महामति श्री प्राणनाथ के निजानंद मार्ग में 'चितवनी' ही प्रमुख आराधना पद्धति है। सात्विक जीवन शैली के साथ निरंतर परमात्म-चिंतन, व्रज, रास और परमधाम की लीलाओं का मनन तथा तारतम वाणी का सतत वाचन एवं अवण, महामति के दर्शन में परमात्म-प्राप्ति का यही एकमात्र उपाय है।

सेवा-पूजा, व्रत-त्यौहार आदि चितवनी का ही विस्तार है। महामति प्राणनाथ के निजानंद मार्ग में जीवन की सुचिता, पवित्रता और सात्विकता पर बहुत जोर है यहाँ साधना के प्रथम सोपान में ही खान-पान, रहन- सहन और लोक व्यवहार की शुद्धता का पूरा आग्रह है । महामति श्री प्राणनाथ कहते हैं -

एक जीवने आहार देवरावे, तेना अनेक जीव संघारे ।
एणी पेरे दान करे दया सूं, ए धरम ते कां नव तारे ॥

स्वयं की उदर-पूर्ति के लिए अनेक जीवों की हत्या करना, फिर दया का दिखावा करके दान करना, इस प्रकार का झूठा धर्म आपको कैसे पार लगा सकता है ?

प्रणामी धर्म में साधना के प्रथम चरण में खान-पान, शुद्ध शाकाहारी और सात्विक होना चाहिए। दूसरे चरण के अंतर्गत सादा जीवन, बाहर और भीतर एक जैसा, दिखावे से दूर; दान, दया और सेवा में अटूट विश्वास महामति श्री प्राणनाथ कहते हैं-

जैसा बाहेर होत है, जो होय ऐसा दिल ।
--------------------------------------------
घर ही में न्यारे रहिए, कीजे अंतर में बास ।
दान दया सेवा सर्वा अंगे, कीजे ते सर्वे गोप । 

खानपान शुद्ध, जीवन सीधा-सरल छल प्रपंच से दूर भीतर बाहर एक जैसा और दान, दया तथा सेवा में समर्पित परंतु अहम् शून्य। यहाँ कीजे ते सर्वे गोप पंक्ति बहुत महत्वपूर्ण है। यदि आपने दान, दया और सेवा का ढिंढोरा पीटा तो सब व्यर्थ फिर आप आराधना के द्वितीय चरण में ही विफल प्रायः लोग अपने दान का खूब ढिंढोरा पीटते हैं, मैंने ये किया, मैंने वो किया, चार पैसे दान करके लोग जगह-जगह अपने नाम के पट्ट लगवाएंगे। अपने नाम के बड़े-बड़े पोस्टर, बैनर आदि जगह-जगह लटकवाएंगे। जरा सोचें, जो हमने दिया वो किसका था? जो हमने दिया क्या सचमुच वो हमारा था ? फिर दान का इतना प्रचार प्रसार क्यों ? रहीम भी कहते हैं-

देनहार कोई और है, भेजत है दिन रैन । 

देनहार तो वही है, हम क्या हैं, निमित्त मात्र इसी प्रकार दया के चर्चे भी बेमानी हैं। लोग कहते फिरते हैं, मैंने अस्पताल खोला, मैंने विकलांगों की सेवा की, मैंने वृद्ध आश्रम खुलवाया, मैंने गरीबों को भोजन करवाया। ये सब करने वाले हम होते कौन हैं? जिसने इतना बड़ा जगत बनाया पशु, पक्षी, इंसानों को बनाया, वही सबको पालता भी है। उस मालिक को सबके दुख-सुख का ख्याल रहता है। सिर्फ आपको उसने माध्यम बनाया, आपको उसने सेवा का अवसर दिया परंतु वास्तव में सेवा तो उसने ही की ।  इस प्रकार महामति श्री प्राणनाथ के अनुसार दान, दया और सेवा करते हुए कभी अहम् नहीं आना चाहिए। इन सभी कार्यों को गुप्त रूप से करना चाहिए।

महामति श्री प्राणनाथ की साधना पद्धति में तीसरी सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है वाणी का वाचन एवं श्रवण । महामति कहते हैं -

सत चाहो तो सब्दा चीन्हो, ओ आप न देवे दिखाई ।
जिन पाया तिन माहें समाया, राखत जोर छिपाई ॥ 

जिन्हें सत्य की तलाश है, वे शब्द को चीन्हें अर्थात् सत्साहित्य को पढ़े। वो अपने आप दिखाई नहीं देता । शब्दों की पहिचान के पश्चात जिन्होंने भी उसे पाया, बस अपने अंत:करण में बलपूर्वक उसे छिपाकर रख लिया ।

श्री देवचंद्र जी ने निष्ठापूर्वक चौदह वर्षों तक श्रीमद्भागवत का श्रवण किया, अध्ययन, मनन किया। अब आपके पास महामति श्री प्राणनाथ जी की वाणी तारतम सागर है, सब ग्रंथों का सार । निरंतर इसका अध्ययन, मनन और श्रवण करते रहने से एक न एक दिन अन्तर्चक्षु खुल जाते हैं।

इस प्रकार महामति प्राणनाथ की साधना पद्धति में सर्वप्रथम खान पान की शुद्धता, जीवन यापन में पवित्रता फिर सतत वाणी का अध्ययन और मनन तत्पश्चात शांति से एकांत में बैठकर परमात्मा के स्वरूप का स्मरण तथा उनकी लीलाओं का चिंतन करते रहने से एक दिन आपकी पुकार सुन ली जाती है और 'वह' आपका प्रीतम, आपका धनी आपके समक्ष प्रगट हो जाता है भजन, कीर्तन, आरती, भोग सब उसको पुकारने के ढंग हैं हमारी क्षमता सीमित है और हम असीम को खोजने निकले हैं। इसलिए जब वह प्रगट होता है, तो उसकी कृपा ही है, हमारे प्रयास कुछ नहीं अत: उसकी कृपा की गहन आकांक्षा ही हमारी साधना का मूल है महामति श्री प्राणनाथ कहते हैं- 

न था भरोसा हमको, जो भवजल उतरें पार । 
इन जुबां केती कहूं, इन मेहर को नहीं सुमार ॥
सखी री मेहेर बड़ी मेहेबूब की, अखण्ड अलेखे ।
अंतर आखां खोलसी, ए सुख सोई देखे ॥ 

इस प्रकार प्रणामी धर्म में साधना की पद्धति है 'चितवनी' । इसका शुद्धतम रूप है ब्रह्म के स्वरूप और लीलाओं का चिंतन, मनन और श्रवण । इसे महामति श्री प्राणनाथ मानसी पूजा कहते हैं ।

'चितवनी' इस छोटे से शब्द का बड़ा विस्तार है । जब देवचंद्र जी थे तब उनके सानिध्य में रहते हुए, उनकी सेवा करके, उनके सुनकर अमृत वचन लोग जागृत हुए। महामति श्री प्राणनाथ के समय में भी, लोगों ने उन्हें साक्षात ब्रह्म स्वरूप मानकर उनकी सेवा-पूजा की। उन्हें देखकर, सुनकर ही लोग जागृत हो गए ।

आज भले ही श्री देवचंद्र जी और महामति श्री प्राणनाथ स्थूल रूप में हमारे बीच नहीं है। परंतु वे अपनी दिव्य देह के साथ आज भी परना धाम में हैं अब उन्हें देखने के लिए, जानने के लिए बहुत 'गहरी चितवनी' चाहिए । हर वक्त ब्रह्म रूप में हम उन्हें याद करते रहें। हमारा मन सदा उन्हीं में रमा रहे इसलिए परनाधाम में अष्टप्रहर की सेवा-पूजा का विधान बना । इस विधान के केन्द्र में यह विश्वास है कि महामति श्री प्राणनाथ ब्रह्म स्वरूप होकर यहाँ उपस्थित हैं। जिस प्रकार उनके जीवन काल में उनकी सेवा-पूजा की जाती थी, आज भी उसी प्रकार यहाँ सेवा-पूजा होती है । वे अपनी वाणी में अपने वाङ्मय स्वरूप के साथ आज भी उपस्थित हैं । संतों ने कहा है -

कुलजम स्वरूप ग्रंथ में, श्री प्राणनाथ की देह ।
श्रद्धाकर जो पावहीं, सकल मिटे संदेह ॥

नवधा भक्ति में अलग-अलग रूपों में अपने इष्ट की भक्ति का विवेचन है । महामति श्री प्राणनाथ की साधना में, पतिव्रता भाव सर्वोपरि है वे हमारे पति हैं, स्वामी है, धनी हैं। हम उनकी अर्द्धांगिनी, उनकी प्रिय पत्नी हैं। हमें उनके सतत् प्रेम, उनके असीम प्रेम के अतिरिक्त और कुछ नहीं चाहिए महामति श्री प्राणनाथ कहते हैं-

तुम दुलहा में दुलहिनी, और न जानूं बात ।
इसक सॉ सेवा करूं, सब अंगों साक्षात ॥ 

हम जिसकी भी आराधना करते हैं, जिसकी भी भक्ति करते हैं, धीरे धीरे उनके गुण हमारे भीतर समाहित होने लगते हैं। हमारे स्वामी, हमारे धनी सत्, चित् और आनंद के स्वरूप हैं। वे आनंद के महासागर हैं। वे रस राज हैं, अतः धीरे-धीरे साधना में, भक्ति में उतरते हुए हमारे भीतर भी आनंद की लहरें उठने लगती हैं, हमारे भीतर भी रस की धार बहने लगती है और एक दिन इस छोटी सी बूँद में पूरा समुद्र आकर समा जाता है ।


परनाधाम में एक महान ब्रह्ममुनि हुए केशवदास जी । उन्होंने महामति श्री प्राणनाथ प्रणीत 14 ग्रंथों को संजोकर एक रूप दिया कुलजम स्वरूप, तारतम सागर यह ग्रंथ महामति श्री प्राणनाथ का ब्रह्मवत् वाङ्मय स्वरूप कहलाया सबसे पहले परनाधाम में इस वाङ्मय स्वरूप को सिंहासन पर पधराकर इसकी पूजा-अर्चना प्रारंभ हुई । तत्पश्चात समस्त पुरियों और मंदिरों में परनाधाम से प्रेरणा लेकर यह पद्धति अपनाई गई । इस प्रकार महामति श्री प्राणनाथ के मार्ग में मानसिक पूजा के बाद शब्द ब्रह्म की आराधना के लिए विशेष आग्रह है । यह मार्ग प्रेम का मार्ग है, इसमें रस की साधना है और आनंद की उपलब्धि है। प्रेम और रस की जहाँ भी बात होती है श्री कृष्ण का नाम स्वतः उभर कर सामने आ जाता है । श्री कृष्ण प्रेम और रस के केन्द्र हैं । एक उनका बाल स्वरूप है, जिसमें गौ चरण, दधि- माखन चोरी, गोपियों के साथ खेल, कालिया दहन, माँ जसोदा का वात्सल्य भाव इस प्रकार की कई लीलाएँ हैं, जिन्हें ब्रज की लीलाएँ कहा गया है, इनका स्मरण मन को आह्लादित कर देता है । श्याम वर्ण श्री कृष्ण पीताम्बर धारण किए हुए हैं। सिर पर सुंदर मोर मुकुट है। गले में मनमोहक मणिमाल है। एक पैर पर दूसरा पैर टिकाए तिरछे खड़े हैं। दोनों हाथों से बंशी संभाले हुए उसमें अपने अधरों से प्राण फूंक रहे हैं। उसमें से जीवंत स्वर निकल रहा है, जिसे सुनने के लिए बहता हुआ जमुना जल तक रूक जाता है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और पवन तक स्थिर होकर उस स्वर लहरी का रसास्वादन कर रहे होते हैं। ऐसे कृष्ण जो कालिया नाग के फन पर नृत्य करते हैं अर्थात वे कालातीत हैं काल उन्हें छू नहीं सकता । वे काल के सिर पर नृत्य करते हुए आनंदित हैं । ब्रज के घरों में गोपियाँ लालायित हैं कि मोहन उनके घर आएँ और माखन चुरा कर जरूर खाएँ माखन चुराने के लिए गोपियों ने आयोजन किए हैं। छींके नीचे की ओर टाँगे गए हैं ताकि वे कान्हा की पहुँच में हों। दधि, माखन कमरे में सामने ही खुला रख दिया गया है ताकि कान्हा को ढूंढ़ना न पड़े। खिड़की, दरवाजे जानबूझ कर खुले छोड़ दिए गए हैं कि वे आएँ और दधि, माखन चुरा कर खाएँ। परंतु घूम- घूम कर, छिप-छिप कर उन्हें यह चोरी देखते रहने की पूरी लालसा है। फिर उन्हें पकड़ भी लिया जाता है। माता जशोदा के यहाँ जाकर उलाहने भी दिए जाते हैं और वहाँ कृष्ण का यह कहना होता है कि मैंने चोरी नहीं की है, यह दधि-माखन तो इन गोपियों ने बरबस मेरे मुख में लपटा दिया है

तो ऐसे नटखट कृष्ण पर भला किसे प्रेम न आए। फिर यही प्रेम रास में परिपक्व हो जाता है या यूँ कहें कि प्रेम के ये पौधे रास में पूरी तरह पुष्पित हो जाते हैं अब पौधों में सुगंधित फूल आ गए। रास में कृष्ण का अद्भुत श्रृंगार है वे किशोर वय के हैं। सौंदर्य के सारे प्रतिमान साकार होकर यहाँ उपस्थित हैं। संपूर्ण सौंदर्य ही कृष्ण में प्रगटित है।

हरे हरे बांस की बनी बांसुरिया, मरम मरम को छुए अंगुरिया । 

चाँद देखने के लिए, सुनने के लिए नीचे उतर आया है। सारी प्रकृति मानों आँख और कान से एक ही जगह स्थिर हो गई है। गोपिकाएँ जिन्होंने प्रेम को जाना है, जिन्हें अमृत की बूंदें मिल गई है, वे महासागर से मिलने क्यों न जाएं ? जैसे उफनाती बल खाती नदी, पहाड़ों को फोड़कर, चट्टानों , को चीरकर, ऊबड़-खाबड़ तलों को पार कर तमाम झंझावातों से गुजर कर सागर में जा समाती है, वैसे ही जिन्होंने प्रेम रस जाना, प्रेम की प्यास जानी उन्होंने बाँसुरी सुनते ही सब कुछ वहीं छोड़ दिया, निकल पड़ीं अपने शाश्वत प्रीतम से मिलने मधुवन की ओर। इस प्रकार रास में प्रेम की पराकाष्ठा है सौंदर्य की पराकाष्ठा है। यहाँ समय रुक गया है प्रकृति स्थिर हो गई है चाँद झुक आया है मानो उसने चांदनी की चादर फैलाकर सबकुछ ढक लिया हो। श्री कृष्ण यहाँ प्रेम के सिरमौर हैं । इसलिए पराप्रेम लक्षणा भक्ति में श्री कृष्ण का स्मरण किया गया। पन्ना धाम में जो आराधना का केन्द्र बनाया गया श्री गुम्मट जी, उसमें सबसे पहले ज्ञान का प्रतीक कुलजम स्वरूप, ब्रज के श्री कृष्ण का भाव मुकुट और वस्त्र आदि, फिर रास के श्री कृष्ण का प्रतीक श्रृंगार और बंशी, बरारब के श्याम का प्रतीक शैली, तत्पश्चात परमधाम के प्रीतम का प्रतीक तुर्रा, कलंगी, इस प्रकार महामति श्री प्राणनाथ की साधना स्थली में पूजा के केन्द्र में उनके ग्रंथ में उनकी सदेह उपस्थिति, ब्रज के कृष्ण का रूप, रास के कृष्ण का श्रृंगार और परमधाम के पति का स्मरण मिलाकर एक विग्रह बना, जिसमें सुन्दरसाथ अपने प्रीतम, अपने स्वामी, अपने धनी का स्वरूप देखते हैं। मान्यता है कि ब्रज में बालस्वरूप में हमें अपने स्वामी मिले । रास में किशोरावस्था में हमें उनका सानिध्य मिला और कलियुग में ज्ञानावतार के रूप में प्रगट होकर उन्होंने सारे संसार के अज्ञान रूपी अंधकार को दूर किया ऐसे महामति श्री प्राणनाथ पूर्णब्रह्म परमात्मा की समस्त शक्तियों के साथ हमारे आराध्य हैं। 'श्री बंगला जी' मंदिर में वह चंदन का तख्त आज भी विद्यमान है, जिस पर विराजकर महामति धर्मोपदेश किया करते थे। इसलिए यह दरबार हॉल, सभा स्थल और महाप्रभु का संसद भवन कहलाता है । यहाँ भी महाप्रभु की वाणी, वस्त्र, बागे, बंशी, मुकुट आदि की सेवा है । सद्गुरु श्री देवचंद्र जी के मंदिर में उनकी गादी विद्यमान है जिसे स्वयं महाप्रभु अपने साथ लाए थे वहाँ उनकी गादी का स्मरण करते हुए हम श्री देवचंद्र जी के ब्रह्म स्वरूप की आराधना करते हैं। श्री महारानी जी के मंदिर में श्री तेजकुंवरि - बाईजूराज के रूप में साक्षात श्यामा महारानी विराजमान हैं वहाँ स्त्रियोचित श्रृंगार है। मुकुट है, नथनी है, वरमाला है, साड़ी है, पिछौरा है और घूँघट है। इस प्रकार पूरी तरह श्यामा महारानी की उपस्थिति है । इन सब स्मृति चिन्हों से हमें अपने मन में श्याम-श्यामा की दिव्य छवि स्थापित करनी है परना परमधाम के सभी मंदिरों में संबंधित स्वरूपों की सदेह उपस्थिति है तो सबसे पहले उनकी सेवा की जाएगी परना धाम में महामति श्री प्राणनाथ श्याम (श्री कृष्ण) और बाईजूराज (श्यामाजी/ राधिका जी) के रूप में आए, इसलिए उनकी अलग-अलग स्थापन: है । शेष सभी मंदिरों में श्याम-श्यामा श्री युगल किशोर की सेवा सहज स्वीकृत है । विभिन्न संप्रदायों के आचार्यों ने महामति श्री प्राणनाथ से हरिद्वार के कुंभ मेले में धर्म-धारणा और साधना पद्धति पर जिज्ञासा प्रकट की थी, जिसका वर्णन श्री लालदास जी एवं अन्य बीतककारों ने अपने ग्रंथों में विस्तार से किया है।

श्री निजानंद पद्धति

सतगुरु ब्रह्मानंद है, सूत्र है अख्यर रूप ।
सिखा सदा इन से परे, चेतन चिद जो अनूप ॥ 1 
सेवन है पुरसोत्तम, गोत्र चिदानंद जान ।
परम किसोरी इस्ट है, पतिव्रत साधन मान ॥ 2 
श्री जुगल किसोर को जाप है, मंत्र तारतम सोए ।
ब्रह्म विद्या देवी सही, पुरी नौतन मम जोए ॥ 3 
अठोत्तर सो पख साखा सही, साला है गोलोक ।
सतगुरु चरन को छेत्र है, जाए जहां सब सोक ॥ 4 
सुख विलास मांहें नित बिंद्रावन, रिषी महाविस्नु है जोए ।
वेद हमारो सुसम है, तीरथ जमुना सोए ॥ 5 
सास्त्र स्रवन श्री भागवत, बुध जाग्रत को ग्यान ।
कुल मूल हमारो आनंद है, फल नित बिहार परमान ॥ 6 
दिव्य ब्रह्मपुर धाम है, घर अख्यरातीत निवास ।
निजानंद है सम्प्रदा, ए उत्तर प्रस्न प्रकास ॥ 7
धनी श्री देवचंद जी निजानंद, जिन प्रगट करी सम्प्रदा येह ।
तिनथें हम यह लखी हैं, द्वार पावें अब तेह ॥ 8  (वीतक)

Post a Comment

Previous Post Next Post

सेवा-पूजा